मज्झिम निकाय
63. चूल-मालुंक्य-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
तब एकान्त में स्थित विचार-मग्न आयुष्मान् मालुंक्य-पुत्त के चित्त में यह वितर्क उत्पन्न हुआ—“भगवान् ने जिन इन दृष्टियों को अ-व्याकृत (= अ-कथनीय), स्थापित (= जिनका उत्तर रोक दिया गया), प्रतिक्षिप्त (= जिनका उत्तर देना अस्वीकृत हो गया) कर दिया है—(1) ‘लोक शाश्वत (= नित्य) है’, (2) ‘लोक अ-शाश्वत है’, (3) ‘लोक अन्तवान् है’, (4) ‘लोक अनन्त हैं’, (5) ‘जीव शरीर एक है’, (6) ‘जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है’, (7) ‘मरने के बाद तथागत होते है’, (8) ‘मरने के बाद तथागत नहीं होते’, (9) ‘मरने के बाद तथागत होते भी है, नहीं भी होते’, (10) ‘मरने के बाद तथागत न-होते हैं, न-नहीं होते है’। इन (दृष्टियों) को भगवान् मुझे नहीं बतलाते। जो (कि) भगवान् मुझे (इन्हें) नहीं बतलाते, यह मुझे नहीं रूचता=मुझे नहीं खमता। सो मैं भगवान् के पास जाकर इस बात को पूछूँ; यदि मुझे भगवान् कहेंगे—(1) ‘लोक शाश्वत है’ या ॰ (10) ‘मरने के बाद तथागत न-होते हैं, न-नहीं होते हैं’; तो मैं भगवान् के पास ब्रह्मचर्य-वास (= शिष्यता) करूँगा। यदि मुझे भगवान् न बतलायेंगे—(1) ‘लोक शाश्वत है’ या ॰ (10) ‘मरने के बाद तथागत न-होते है, न- नहीं होते हैं’; तो मैं (भिक्षु) शिक्षा का प्रत्याख्यान कर हीन (= गृहस्थ-आश्रम) में लौट जाऊँगा।”
तब आयुष्मान् मालुंक्यपुत्त सायंकाल को प्रतिसँल्लयन (= एकान्त चिन्तन, विचार-मग्न होना) से उठकर जहाँ भगवान् थे, वहाँ…जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे आयुष्मान् मालुंक्यपुत्त ने भगवान् से यह कहा—
“भनते! ॰ यहाँ मेरे चित्त में यह वितर्क उत्पन्न हुआ—‘भगवान् ने जिन इन दृष्टियों को अ-व्याकृत ॰ तो मैं शिक्षा को प्रत्याख्यान कर हीन (आश्रम) में लौट जाऊँगा।’ यदि भगवान् जानते हैं—(1) ‘लोक शाश्वत है’, तो भगवान् मूझें बतलायें—‘लोक शाश्वत है’। (2) यदि भगवान् जानते हैं—‘लोक अशाश्वत है’, तो भगवान् मुझे बतलायें—‘लोक अशाश्वत है’। यदि भगवान् नहीं जानते, कि ‘लोक शाश्वत है, या लोक अशाश्वत है’; तो न जानने समझने वाले के लिये यही सीधी (बात) है, कि वह (साफ कह दे)—‘मैं नहीं जानता, मुझे नहीं मालूम-। ॰ यदि भगवान् जानते हैं—(9) ‘मरने के बाद तथागत होते भी हैं, नहीं भी होते हैं’; तो भगवान् मुझे बतलायें—‘मरने के बाद ॰। यदि भगवान् जानते हैं—(10) ‘मरने के बाद तथागत न-होते हैं, न-नहीं होते हैं’, तो भगवान् मुझे बतलायें—‘॰ न-नहीं होते है’। यदि भगवान् नहीं जानते—‘॰ होते भी हैं, नहीं भी होते’ या ‘॰ न-होते हैं, न-नहीं-होते’; तो न जानने समझने— वालो के लिये यही सीधी (बात) है, कि वह (साफ कह दे)—‘मैं नही जानता, मुझे नहीं मालूम’।”
“क्या मालुंक्यपुत्त! मैंने तुझसे यह कहा था—‘आ, मालुंक्य-पुत्त! मेरे पास ब्रह्मचर्यवास कर, मैं तुझे बतलाऊँगा—(1) ‘लोक शाश्वत है’, ॰ (10) ‘मरने के बाद तथागत न-होते हैं, न-नहीं होते हैं’?”
“नहीं, भन्ते!”
“क्या तूने मुझसे यह कहा था—मैं भन्ते! भगवान् के पास ब्रह्मचर्यवास करूँगा, भगवान् मुझे बतलायें—(1) ‘लोक शाश्वत है’, ॰ (10) ‘मरने के बाद तथागत न-होते हैं, न-नहीं होते है’?”
“नहीं, भन्ते!”
“इस प्रकार मालुंक्यपुत्त! न मैंने तुझसे कहा था—‘आ ॰, ॰; न तूने मुझसे कहा था—मैं भन्ते! ॰, ॰। ऐसा होने पर मोघ-पुरूष! (= फजुल के आदमी)! तू क्या होकर किस का प्रत्याख्यान करेगा?”
“मालुंक्य-पुतत! जो ऐसा कहे—मैं तब तक भगवान् के पास ब्रह्मचर्यवास न करूँगा, जब तक भगवान् मुझे यह न बतलावें—(1) ‘लोक शाश्वत है’ ॰, या (10) ॰ न-होते हैं, न-नहीं होते’; (फिर) तथागत ने उन्हंे अव्याकृत किया है और वह (बीच में ही) मर जायेगा। जैसे मालुंक्यपुत्त! कोई पुरूष गाढे लेपवाले विषय से युक्त शल्य (= बाण के फल) से विधा हो; उसके हित-मित्र भाई-बद शल्यचिकित्सक भिषक् (= वैद्य) को ले आवें। (और) वह (घायल) यह कहे—‘मैं तब तक इस शल्य को नहीं निकालने दूँगा, जब तक कि अपने बेधने वाले उस पुरूष को न जान लूँ कि वह क्षत्रिय है या ब्राह्मण, वैश्य है (= वेस्स) या शूद्र (= सुद्द)।…‘मैं तब तक इस शल्य को नहीं निकालने दूँगा, ॰ कि वह पुरूष अमुक नाम का अमुक गौत्र का है’। ॰, ॰ कि वह पुरूष (कद में) लम्बा है, नाटा है, या मझोला है’। ॰, ॰ कि वह पुरूष काला है, श्याम है, या मंगुर (-मछली) के रंग का है’। ॰, ॰ कि वह अमुक ग्राम या निगम (= कस्बे) या नगर में (रहता) हैं’।…‘मैं तब तक इस शल्य को नहीं निकालने दूँगा, जब तक कि उस बेधने वाले धनुष को न जान लूँ, कि वह चाप है या कोदण्ड। ॰ ज्या को न जान लूँ, कि वह अर्क (= मदार) की, या संठेकी, या नहारू (= ताँत) की, या मरूव (= मरूवा) की या क्षीरपर्णी (= दुधिया जडी) की हैं’। ॰ काण्ड (= शर, बाण) को न जान लूँ, कि वह कच्छ (= जलाशय के तट पर स्वयं उगे सर्पत) का है, या रोपे (सर्पत) का है’। ॰ तीर के पर को न जान लूँ, कि वह बाज का, या गिद्ध; कौओं, या बगले (= कुलल), या मोर, या शिथिलहनु या गोरूव (= लकडे?) की, या बंदर की है’। ॰ शल्य (= फर) को न जान लूँ, कि वह शल्य है, क्षुरप्र (= खुरपे जैसा फर), या वेकण्ड, या नाराच, वत्सदन्त (= बछडे के दाँत की तरह), या करवीर-पत्र (= करेरू के पत्र की भाँति एक नोक वाला)। (ऐसा होने पर) मालुंक्य-पुत्त! वह तो अ-ज्ञात ही रह जायेंगे, और यह पुरूष मर जायेगा। ऐसे ही मालुंक्य-पुत्त! जो ऐसा कहे—‘मैं तब तक ॰ (फिर) तथागत ने तो इसे अ-व्याकृत (= कथन का अविषय) किया है, और वह मर जायेगा।
“मालुंक्यपुत्त! (1, 2) ‘लोक शाश्वत है’—इस दृष्टि के होने पर ही क्या ब्रह्मचर्यवास होगा?—ऐसा नहीं। ‘लोक अशाश्वत है’ इस दृष्टि के होने पर ही क्या ब्रह्मचर्यवास होगा?—ऐसा भी नहीं।। मालुंक्यपुत्त! चाहे ‘लोक शाश्वत है’—यह दृष्टि रहे, चाहे ‘लोक अशाश्वत है’ यह दृष्टि रहे; जन्म है ही, जरा है ही, मरण है ही, शोक रोना-काँदना दुःख दौर्मनस्य परेशानी हैं ही, जिनके इसी जन्म में विधात (के उपाय) को मैं बतलाता हूँ। ॰।
“मालुंक्यपुत्त! (9, 1॰) “मरने के बाद तथागत (= मुक्त पुरूष) होते भी हैं, नहीं भी होते हैं’—यह दृष्टि रहे, चाहे ‘॰ न-होते हैं, न-नहीं होते है’—यह दृष्टि रहे; जन्म है ही ॰, जिनके इसी जन्म में विधात (के उपाय) को मैं बतलाता हूँ।
“इसलिये मालुंक्यपुत्त! मेरे अ-व्याकृत (= वचन के अ-विषय) को अव्याकृत के तौर पर धारण कर, और मेरे व्याकृत को व्याकृत के तौर पर धारण कर।
“मालुंक्यपुत्त! क्या मेरे अ-व्याकृत हैं?—(1) ‘लोक शाश्वत है’—यह मेरा अ-व्याकृत है, ॰ (1॰) ‘॰ न-होते हैं, न-नहीं होते हैं’ यह…मेरा अ-व्याकृत है। मालुंक्यपुत्त! किसलिये इन्हें मैने अ-व्याकृत (कहा) है?—मालुंक्यपुत्त! यह (= इनका व्याकरण, कथन) सार्थक नहीं, आदि-ब्रह्मचर्य-उपयोगी नहीं हैं; (और) न यह निर्वेद=वैराग्य, निरोध=उपशम (= शांति), अभिज्ञा (= लोकोत्तर ज्ञान), संबोध (= परम ज्ञान), निर्वाण के लिये (आवश्यक) हैं; इसलिये मैंने उन्हें अ-व्याकृत किया।
“मालुंक्यपुत्त! क्या मेरे व्याकृत (= कथित, कथन के विषय) हैं?—(1) ‘यह दुःख है’—इसे मैनें व्याकृत किया, (2) ‘यह दुःख-समुदय (= ॰ हेतु, ॰ उत्पत्ति) हैं—इसे मैंने व्याकृत किया, (3) ‘यह दुःख-निरोध है ॰, (4) ‘यह दुःख-निरोध-गामिनी प्रतिपद् हैं’—इसे मैने व्याकृत किया। मालुंक्यपुत्त! किसलिये इन्हें मैंने व्याकृत किया है?—मालुंक्य-पुत्त! यह सार्थक हैं, आदि-ब्रह्मचर्य उपयोगी हैं, (और) यह निर्वेद ॰ निर्वाण के लिये (आवश्यक) हैं; इसलिये मैंने इन्हें व्याकृत किया।
“इसलिये मालुंक्यपुत्त! मेरे अ-व्याकृत को अ-व्याकृत के तौर पर धारण कर, और मेरे व्याकृत को व्याकृत के तौर पर धारण कर।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो आयुष्मान् मालुंक्यपुत्त ने भगवान् के भाषण को अभिनंदित किया।