मज्झिम निकाय

65. भद्दालि-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथ-पिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।

वहाँ भगवान् भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ!”

“भदन्त!”— (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! मैं एक आसन-भोजन का सेवन करता हूँ। एक आसन-भोजन को सेवन करने से मैं (अपने में) निरोगता=निव्र्याधिता, फुर्ती, बल और सुख (-पूर्वक) विहार को देखता हूँ। आओ, भिक्षुओ! तुम भी एक आसन-भोजन सेवन करों, एक आसन-भोजन सेवन करने से तुम भी निरोगता ॰ सुख-विहार को देखोगे।”

ऐसा कहने पर आयुष्मान् भद्दालि ने भगवान् से यह कहा—“मैं भन्ते! एक आसन-भोजन को सेवन नहीं कर सकता। एक आसन-भोजन सेवन करने पर भन्ते! मुझे कौकृत्य (= चिंता) होगा, उदासी (= विप्रतिसार) होगी।”

“तो भद्दलि! जहाँ तू निमंत्रित हो, वहाँ (भोजन का) एक भाग खा दूसरे भाग को ले जाकर (दूसरी बार) खाना; इस प्रकार खा कर भी भद्दलि! तू गुजारा कर सकता है।”

“ऐसे भी भन्ते! मैं भोजन नहीं कर सकता। ऐसे भोजन करने पर भी भन्ते! मुझे कौकृत्य होगा, विप्रतिसार होगा”

तब आयुष्मान् भद्दालि ने भगवान् के शिक्षापद (= भिक्षु-नियम) बनाते समय, भिक्षु-संघ के शिक्षा ग्रहण करते समय उपेक्षा (अन्-उत्साह) की। तब आयुष्मान् भद्दालि उस सारे तिमा से भर भगवान् के सन्मुख नहीं गये; क्योंकि वह शास्ता-के-शासन (= बुद्ध-धर्म) में शिक्षा का पूरी तरह पालन करने वाले न थे।

उस समय बहुत से भिक्षु (यह ख्याल करते) भगवान् का चीवर-कर्म (= वस्त्र सीना) कर रहे थे, कि चीवर तैयार हो जाने पर तीन मास बाद भगवान् का चारिका (= पर्यटन) के लिये जायेंगे। तब आयुष्मान् भद्दालि, जहाँ वह भिक्षु थे, वहाँ…जाकर उन भिक्षुआ के साथ…सम्मासेदन कर, एक ओर बैठे गये, एक ओर बैठे आयुष्मान् भद्दालि से उन भिक्षुओं ने कहा—

“आवुस भद्दालि! यह भगवान् का चीवर-कर्म किया जा रहा है; चीवर तैयार हो जाने पर तीन मास बाद भगवान् चारिको जायेंगे। अच्छा, आवुस भद्दालि! इस बात (= देसना) को अच्छी तरह मन में करो, मत पीछे (यह) अधिक दुष्कर हो जाये।”

भिक्षुओं को “अच्छा, आवुस!” कह, आयुष्मान् भद्दालि जहाँ भगवान् थे, वहाँ…जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठे गये। एक ओर बैठे आयुष्मान्-भद्दालि ने भगवान् से यह कहा—

“भन्ते! बाल, मूढ=अ-कुशल जैसे मुझसे अपराध (= अत्यय) हुआ जो कि भगवान् के शिक्षापद बनाते समय, भिक्षु-संघ के शिक्षा ग्रहण करते समय मैंने उपेक्षा प्रकट की। भन्ते! भग— वान् मेरे उस अपराध को क्षमा करें, भविष्य में सवर (= रक्षा) के लिये।”

“तो, भद्दालि! बाल, मूढ =अकुशल जैसे तुझसे अपराध हुआ, जो कि मेरे शिक्षापद बनाते समय, भिक्षु-संघ के शिक्षा ग्रहण करते समय तूने उपेक्षा प्रकट की। भद्दालि! तुझे यह भी ख्याल नहीं गुज़रा कि भगवान् श्रावस्ती में विहर रहे हैं, भगवान् भी मुझे जानेंगे—‘भद्दालि नामक भिक्षु शास्ता के शासन में शिक्षा को पूरा नहीं करने वाला है’। भद्दालि तुझे यह भी ख्याल (= समय) नहीं गुजरा कि बहुत से भिक्षु श्रावस्ती में वर्षा वास के लिये आये हुये हैं, वह भी जानेंगे—‘भद्दालि ॰ शिक्षा को पूरा करने वाला नहीं है’। भद्दालि! तुझे यह भी ख्याल नहीं गुजरा कि बहुत सी भिक्षुणियाँ श्रावस्ती में वर्षा-वास के लिये आई हुई हैं ॰। भद्दालि! तुझे यह भी ख्याल नहीं गुजरा कि बहुत से उपासक श्रावस्ती में बसते है ॰। ॰ बहुत सी उपासिकायें श्रावस्ती में बसती हैं ॰। ॰ बहुत से दूसरे तीर्थ (= मत) के श्रमण-ब्राह्मण श्रावस्ती में वर्षा-वास के लिये आये हुये हैं, वह भी जानेंगे—‘श्रमण गौतम का श्रावक, एक स्थविर (= वृद्ध) भद्दालि नामक भिक्षु, शास्ता के शासन में शिक्षा को पूरा करने वाला नहीं है, तुझे यह भी ख्याल नहीं गुज़रा?”

“भन्ते! बाल ॰ भन्ते भगवान् मेरे अपराध को क्षमा करें भविष्य में संवर के लिये।”

“तो भद्दालि! ॰ भिक्षु-संघ के शिक्षा ग्रहण करते समय तूने उपेक्षा प्रकट की। तो क्या मानता है, भद्दालि! यहाँ कोई उभतो-भाग-विमुक्त (= अर्हत्) भिक्षु हो, उसे मैं यह कहूँ—‘आ भिक्षु! तू पंक में मेरे लिये पार होने का (रास्ता) बन जा’। तो क्या वह पार होने का (रास्ता) बनेगा, या (अपने) शरीर को दूसरी ओर झुकायेगा, या ‘नहीं’ कहने वाला होगा?”

“ऐसा नहीं, भन्ते!”

“तो क्या मानता है, भद्दालि! यहाँ कोई प्रज्ञा-विमुक्त भिक्षु हो ॰। ॰ काय-साक्षी ॰। ॰ दृष्टि-प्राप्त ॰। ॰ श्रद्धा-विमुक्त ॰ ॰ धर्मानुसारी ॰। ॰ श्रद्धानुसारी ॰ या ‘नहीं’ कहने वाला होगा?”

“ऐसा नहीं भन्ते!”

“तो क्या मानता है, भद्दालि! क्या तू उस समय उभतो-भाग-विमुक्त था, ॰ या श्रद्धानुसारी था?”

“नहीं (था) भन्ते!”

“तो भद्दालि! उस समय तू रिक्त=तुच्छ अपराधी था?”

“हाँ, भन्ते! ‘॰ भन्ते! भगवान् मेरे उस अपराध को क्षमा करें, भविष्य में संवर के लिये।”

“तो भद्दालि! ॰ तूने उपेक्षा प्रकट की। चूँकि भद्दालि! तू अपराध को, अपराध के तौर पर देख धर्मानुसार (उसका) प्रतिकार करता है, (इसलिये) उसे हम स्वीकार करते है। भद्दालि! आर्य-विनय (= बुद्धधर्म) में वह बुद्धि है, जो कि यह अपराध को अपराध के तौर पर देख भविष्य में संवर के लिये धर्मानुसार प्रतिकार करना है।

“भद्दालि! यहाँ कोई भिक्षु शास्ता के शासन में शिक्षा का पूरा करने वाला न हो; उसे यह हो—‘क्यों न मैं एकान्त शयन-शासन—अरण्य, वृक्ष-मूल, पर्वत, कंदरा, गिरिगुहा, श्मशान, वन-प्रस्थ, अव्भोकास (= खुल जगह), पुआल-पुंज को सेवन करूँ; शायद मैं उत्तर-मनुष्य-धर्म (= मानव स्वभाव से परे) अलं-आर्य-ज्ञान-दर्शन-विशेष (= लोकोत्तर-ज्ञान, दिव्यशक्ति) का साक्षात्कार करूँ। (तब) एकान्त शयन-आसन ॰ को सेवन करें। वैसे एकान्त विहार करते उसे शास्ता भी उपवाद (= शिक्षा) करते हैं, सोच कर सब्रह्मचारी (= गुरूभाई) भी उपवाद करते हैं, देवता भी उपवदते हैं, अपने आपको भी उपवदता है। इस प्रकार शास्ता द्वारा उपवदित हो, ॰ अपने आप उपवदित हो, उत्तर-मनुष्य धर्म का, अलं-आर्य-ज्ञान-दर्शन-विशेष का नहीं साक्षात्कार करता। सो क्यों?—भद्दालि! यहीं जो कि वह शास्ता शासन में शिक्षा को पूरी तरह पालन करने वाला नहीं होता।

“किन्त यहाँ भद्दालि! कोई भिक्षु शास्ता के शासन में शिक्षा का पूरी तरह पालन करने वाला होता है। उसको ऐसा होता हैं—क्यों न मैं एकान्त शयनासन (= निवास) ॰ को सेवन करूँ। वैसा एकान्त विहार करते उसे शास्ता भी नहीं उपवदते ॰ अलमार्य-ज्ञान-दर्शन-विशेष को वह साक्षात्कार करता है। सो किस हेतु?—भद्दालि! यही जो कि वह शास्ता के शासन में शिक्षा को पूरी तरह पालन पोषण करने वाला होता है।

“और फिर भद्दालि! भिक्षु ॰ द्वितीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰।

“और फिर भद्दालि! भिक्षु ॰ तृतीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰।

“और फिर भद्दालि! भिक्षु ॰ चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰।

“और फिर भद्दालि! भिक्षु इस प्रकार चित्त के एकाग्र ॰ इस प्रकार आकार और उद्देश्य के सहित अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगता है। ॰ ।

“और फिर भद्दालि! भिक्षु इस प्रकार चित्त के एकाग्र ॰ स्वर्ग को प्राप्त हुये है। इस प्रकार अ-मानुष विशुद्ध दिव्य चक्षु से ॰ देखने लगता है। ॰

“और फिर भद्दालि! भिक्षु आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिये चित्त को झुकाता है ॰ अब यहाँ (करने) के लिये कुछ (शेष) नहीं है—इसे जान लेता है। ॰”

ऐसा कहने पर आयुष्मान् भद्दालि ने भगवान् से यह कहा—“भन्ते क्या हेतु है=क्या प्रत्यय है, जो कि कोई-कोई भिक्षु फिर-फिर (उसी) कारण को करता है? भन्ते क्या है हेतु=क्या है प्रत्यय, जो कि कोई-कोई भिक्षु फिर-फिर वैसे कारण को नहीं करता?”

“भद्दालि! कोई भिक्षु निरंतर आपत्ति (= कसूर) करने वाला होता है=आपत्ति-बहुल (होता है)। भिक्षुओं के कहने पर दूसरा-दूसरा करने लगता है, बाहर की बात उठा देता है; कोप द्वेष, अ-प्रत्यय (= असन्तोष) प्रकट करता है; ठीक से नहीं बर्तता, रोम नहीं गिराता, निस्तार नहीं खोजता (= वन्तति), ‘जिससे संघ संतुष्ट हो, उसे करूँगा’—यह नहीं कहता। तब भद्दालि! भिक्षुओं को यह होता है—‘आवुसो! यह भिक्षु निरन्तर आपत्ति करने वाला है ॰ यह नहीं कहता। अच्छा, आवुसो! इस भिक्षु की वैसे-वैसे उप परीक्षा (= जाँच) करों, जिसमें इसका यह अधिकरण (= अभियोग, मुकदमा, जो उसके कसूर के सम्बन्ध में भिक्षु-संघ में पेश है) जल्दी न शान्त (= तै) हो जाये।’ भद्दालि! भिक्षु उस भिक्षु के अधिकरण को वैसे-वैसे जाँचते हैं, कि उसका वह अधिकरण जल्दी नहीं शान्त होता।

“भद्दालि! कोई भिक्षु निरन्तर आपत्ति करने वाला, आपत्ति-बहुल होता है—(किन्तु) वह भिक्षुओं के कहने पर दूसरा दूसरा नहीं करने लगता। ॰ ‘जिससे संघ सन्तुष्ट हो, उसे करूँगा’—कहता है। ॰ भिक्षु उस भिक्षु के अधिकरण को वैसे वैसे जाँचते हैं, कि उसका वह अधिकरण जल्दी ही शान्त हो जाता है।

‘भद्दालि! कोई भिक्षु विरल आपत्ति वाला होता है=आपत्ति-बहुल नहीं होता। वह भिक्षुओं के कहने पर दूसरा दूसरा करने लगता है ॰ उसका वह अधिकरण जल्दी नहीं शान्त होता।

“॰ ‘वह भिक्षुओं के कहने पर दूसरा दूसरा नहीं करने लगता ॰ उसका वह अधिकरण जल्दी ही शान्त हो जाता है।

“भद्दालि! यहाँ कोई भिक्षु श्रद्धामात्र, पे्रममात्र से रह रहा है। वहाँ भद्दालि! भिक्षुओं को यह होता है—आवुसो! यह भिक्ष्ज्ञु श्रद्धामात्र पे्रममात्र से रह रहा है। यदि हम बार-बार इस भिक्षु के कारण (= कसूर-बेकसूर का निर्णय) करेंगे, तो जो कुछ श्रद्धा मात्र पे्रममात्र इसको है, वह भी कहीं इसका छूट न जाये। जैसे भद्दालि! किसी पुरूष को एक आँख हो, उसके बन्धु मित्र, जाति-भाई उस एक आँख की रक्षा करें—जो इसकी एक आँख हैं, वह भी कहीं नष्ट न हो जाये। ऐसे ही भद्दालि! कोई भिक्षु श्रद्धामात्र=प्रेममात्र से बर्तता है, ॰ वह भी कहीं इसका छूट न जाये।

“भद्दालि! यह हेतु है=यह प्रत्यय है, जिससे कोई कोई भिक्षु बार बार कारण करते है। भद्दालि! यह हेतु=प्रत्यय है, जिससे कि कोई कोई भिक्षु बार बार कारण (= दोष) नहीं करते।”

“भन्ते! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कि पूर्वकाल में अल्पतर शिक्षापद (= भिक्षु-नियम) थे, और बहुत भिक्षु आज्ञा (= उत्तम ज्ञान) में अवस्थित थे? भन्ते! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, जो कि आजकल शिक्षापद् बहुत है, किन्तु अल्प ही भिक्षु आज्ञा में अवस्थित होते हैं?”

“भद्दालि! शास्ता (= गुरू) तब तक श्रावकों (= शिष्यों) के लिये शिक्षापद् का विधान नहीं करते, जब तक कि यहाँ संघ में कुछ आस्रव (= चित्त-मल)-स्थानीय धर्म (= कार्य) हो नहीं जाते। जब भद्दालि! संघ में कुछ आस्रवस्थानीय धर्म उत्पन्न हो जाते है, तो उन्हीं आस्रव-स्थानीय धर्मो के दूर करने के लिये शास्ता संघ के लिये शिक्षापद का विधान करते है। भद्दालि! संघ में तब तक कोई आस्रव-स्थानीय धर्म उत्पन्न नहीं होते, जब तक कि संघ महान् न हो गया हो। जब भद्दालि! संघ महान् हो गया होता है, तो यहाँ कोई आस्रव-स्थानीय धर्म उत्पन्न होते हैं; तब ॰ शास्ता संघ के लिये शिक्षापद का विधान करते हैं। भद्दालि! तब तक संघ में कोई आस्रवस्थानीय धर्म नहीं उत्पन्न होतो, जब तक कि संघ बडे लाभ को न प्राप्त हो गया हो ॰। ॰ बडे यश को न प्राप्त हो गया हो ॰। ॰ बहुश्रुत भाव को न प्राप्त हो यगा हो ॰। रात्रिज्ञ-भाव (= चिरकाल से अवस्थित) को न प्राप्त हो गया हो ॰।

“भद्दालि! तुम लोग उस समय थोडे थे, जब कि मैंने तुम्हे आजानीयस्सूपमा (= आजानीयाश्वोपम) धर्म-पर्याय (= सूत्र) को उपदेश किया था। याद है. भद्दालि?”

“नहीं, भन्ते!”

“वहाँ, भद्दालि! क्या कारण समझता है?”

“मैं भन्ते! चिरकाल से शास्ता के शासन में शिक्षा को पूरा करने वाला न था।”

“भद्दालि! यही हेतु=यही प्रत्यय नहीं है। बल्कि भद्दालि! दीर्घकाल से मैंने तेरे चित्त के भाव को जान लिया है—‘यह मोघपुरूष! मेरे धर्म-उपदेश करते समय, ध्यान करके मन लगा कर, सारे चित्त को एकाग्र कर, सावधान हो धर्म नहीं सुनता’। अच्छा भद्दालि! तो मैं तुझे आजानीयस्सूपम धर्म-पर्याय को उपदेशता हूँ, उसे सुन अच्छी तरह मन में कर, कहता हूँ।”

“अच्छा, भन्ते!”—(कह) आयुष्मान् भद्दालि ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा—“जैसे भद्दालि! चतुर चाबुक-सवार भद्र=आजानीय अश्व को पा कर, (1) पहिले मुखाधान (= लगाम लगाना आदि) का कारण (= शिक्षा) करता है। पहिले न जाना कारण होने से मुखाधान कारण करते वक्त कुछ चपलता, भूल, प्रमाद होते ही हैं। क्योंकि वह निरन्तर, क्रमशः उस कारण (= शिक्षा) के देने से उसे सीख लेता है। (2) भद्दालि! निरंतर क्रमशः शिक्षा देने से जब वह उसे सीख लेता है, तो चाबुक सवार उसे आगे की शिक्षा, युगाधान (= जुआ खींचना) सिखलाता है। पहिने न जाना (= किया) कारण होने से ॰। (3) ॰ जब वह उसे सीख लेता है, तो ॰ चाबुक सवार उसे आगे की शिक्षा (= करण) मंडल (= चक्कर काटना) ॰। ॰ खुरकाय (= निःशब्दगति) ॰। ॰ धावन (= सर्पट) ॰। ॰ रवार्थ (= हिनहिनाने की शिक्षा) ॰। ॰ राजगुण (= एक गति) ॰। ॰ राजवंश वण्ण्यि (= एक गति) ॰। ॰ बलिय (= एक गति) में प्रवेश कराता है। भद्दलि! इन दस गुणों (= अंगो) से युक्त भद्र=आजानीय अश्व राजाई=राज-भोग्य होता है, राजा का अंग ही कहा जाता है। ऐसे ही भद्दालि! दश अंगों से युक्त भिक्षु आवाहन-योग्य, अतिथि-सेवा-योग्य, दान-योग्य, हाथ-जोडने-योग्य, लोक के पुण्य (बोने) का अनुपम क्षेत्र (= खेत) होता है। किन दश (= अंगो) से?—(1) यहाँ, भद्दालि! भिक्षु अशेप सम्यग्दृष्टि से युक्त होता है; (2) ॰ अशेष (= संपूर्ण) सम्यक्-संकल्प ॰। (3) ॰ अशेष सम्यग्-वाक् ॰। (4) ॰ अशेष सम्यग् कर्मान्त ॰। (5) ॰ अशेष सम्यग् आजीव ॰। (6) अशेष सम्यग् व्यायाम ॰। (7) ॰ अशेष सम्यक्-स्मृति ॰। (8) अशेष सम्यक्-समाधि ॰। (9) ॰ अशेष सम्यग् (= ठीक) ज्ञान ॰। (10) अशेष सम्यग्-विमुक्ति (= ॰ मुक्ति, रागद्वेष मोह से चित्त की मुक्ति) ॰। भद्दालि! हम दस गुणों से युक्त भिक्षु ॰ अनुपम क्षेत्र होता है।”

भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो आयुष्मान् भद्दालि ने भगवान् के भाषण को अभिनंदित किया।