मज्झिम निकाय
7. वत्थ-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त!” (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।
भगवान् ने यह कहा—“भिक्षुओ! जैसे कोई मैला कुचैला वस्त्र (= वत्थ) हो, उसे रंगरेज (= रजक) ले जाकर जिस किसी रंग में डाले-चाहे नील में, चाहे पीत में, चाहे लोहित (= लाल) में, चाहे मांजिष्ट (= मजीठ के रंग) में; वह बदरंग ही रहेगा, अशुद्धवर्ण ही रहेगा। सो किस लिये?—भिक्षुओ! वस्त्र के अशुद्ध होने से। ऐसे ही भिक्षुओ! चित्त के मलिन होने से दुर्गति अ-निवार्य है।
“जैसे, भिक्षुओ! उजला साफ वस्त्र हो, उसे रंगरेज ले जाकर जिस किसी ही रंग में डाले॰, वह सुरंग निकलेगा, शुद्धवर्ण निकलेगा। सो किस लिये?—भिक्षुओ! वस्. के शुद्ध होने के कारण। ऐसे ही भिक्षुओ! चित्त के अन्-उपक्लिष्ट (= निर्मल) होने पर सुगति अ-निवार्य (= लाजिमी) है (= प्रातिकांक्ष्या)।
“भिक्षुओ! कौन से चित्त के उपक्लेश (= मल) है?—(1) अभिध्या=विषम लोभ चित्त का उपक्लेश है; (2) व्यापाद (= द्रोह)॰, (3) क्रोध॰, (4) उपनाह (= पाखंड)॰; (5) भ्रक्ष (= अमरख)॰; (6) प्रदाश (= निष्ठुरता)॰; (7) ईष्र्या॰; (8) मात्सर्य (= कजूसी)॰; (9) माया (= वंचना)॰; (1॰) शाठ्थ ॰; (11) स्तम्भ (= जढता)॰; (12) सारम्भ (= हिंसा)॰; (13) मान ॰; (14) अतिमान ॰, (15) मद ॰; (16) प्रमाद ॰।
“भिक्षुओ! जो भिक्षु—’अभिज्या=विषम लोभ चित्त का उपक्लेश है1—यह जानकर अभिध्या ॰ चित्त के उपक्लेश को त्यागता है। ‘व्यापाद चित्त का उपक्लेश है’—यह जानकर ॰। क्रोध॰। उपनाह ॰। भ्रक्ष ॰। प्रदाश ॰। ईष्र्या ॰। मात्सर्य ॰। माया ॰। शाठ्य ॰। स्तम्भ ॰। सारम्भ ॰। मान ॰। अतिमान ॰। मद ॰। प्रमाद ॰।
“भिक्षुओ! जब भिक्षु ने—’अभिध्या=विषमलोभ चित्त का उपक्लेश है, —यह जानकर चित्त के उपक्लेश अभिध्या ॰ को त्याग दिया है। व्यापाद ॰। क्रोध॰। उपनाह ॰। भ्रक्ष ॰। प्रदाश ॰। ईष्र्या ॰। मात्सर्य ॰। माया ॰। शाठ्य ॰। स्तम्भ ॰। सारम्भ ॰। मान ॰। अतिमान ॰। मद ॰। प्रमाद ॰। तो वह बुद्ध में अत्यन्त श्रद्धा (= प्रसाद) से युक्त होता है—’वह भगवान् अर्हत् सम्यक्-संबुद्ध (= परमज्ञानी), विद्या-और-आचरण से संपन्न (= परिपूर्ण), सुगत (= सुन्दर गति को प्राप्त) लोकविद्, पुरूषों को दमन करने (= सन्मार्ग पर लाने) के लिये अनुपम चाबुक सवार, देव-मनुष्यों के शास्ता (= उपदेशक) बुद्ध (= ज्ञानी) भगवान् है’। वह धर्म में अत्यन्त श्रद्धा से युक्त होता है—’भगवान् का धर्म स्वाख्यात (सुन्दररीति से कहा गया) है, (वह) सांदृष्टिक (= इसी शरीर में फल देने वाला), अकालिक (= कालान्तर में नहीं, सद्यः फलप्रद), एहिपश्यिक (= यहीं दिखाई देने वाला), औपनयिक (= निर्वाण के पास ले जाने वाला), विज्ञ (पुरूषों) को अपने अपने भीतर (ही) विदिन होने वाला है’। वह1 संघ में अत्यन्त श्रद्धा से युक्त होता है—’भगवान् का श्रावक (= शिष्य-संघ) सुमार्गारूढ़ (= सुप्रतिपन्न) है, ॰ ऋजुप्रतिपन्न (= सरल मार्ग पर आरूढ़) है, ॰ न्याय (मार्ग)-प्रतिपक्ष है, ॰ सामीचि-प्रतिपन्न (= ठीक मार्ग पर आरूढ़) है, यह जो चार पुरूष-युगल (= स्रोतआपन्न, सकुदागामी, अनागामी, अर्हत्), आठ पुरूष-पुद्गल (= स्त्री पुरूष भेद से स्रोत आपन्न आदि आठ) हैं, यही भगवान् का श्रावक संघ है, (जो कि) आह्वान करने योग्य है, पाहुना बनने योग्य, दक्षिणेय (= दान देने योग्य), हाथ जोडने योग्य, और लोक के लिये पुण्य (बोने) का क्षेत्र है’।
“जब उसके वह (मल) त्यक्त, वमित, मोचित, नष्ट, विसर्जित होते है;(और)—’मैं बुद्ध में अत्यन्त श्रद्धा से युक्त हूँ’—यह (सोचकर) वह अर्थ-वेद (= अर्थज्ञान), धर्मवेद (= धर्मज्ञान) को पाता है, (और) धर्मवेद संबंधी प्रमोद (= प्रोमोद्य) को पाता है। प्रमुदित (पुरूष) को प्रीति (= संतोष) होती है। प्रीतिमान् की काया शांत होती है, प्रश्रब्धकाय सुख अनुभव करता है। सुखी का चित्त एकाग्र होता है—’मैं धर्म में अत्यन्त श्रद्धा से युक्त हूँ’—यह (सोचकर) वह ॰। ‘मैं संघ मे अत्यन्त श्रद्धा से युक्त हूँ—यह (सोचकर) वह ॰। जब उसके वह (मल) त्यक्त ॰ होते हैं, तो वह अर्थवेद को, धर्म-वेद को पाता है ॰। सुखी का चित्त एकाग्र होता है।
“भिक्षुओ! वह ऐसे शीलवाला, ऐसे धर्मवाला, ऐसी प्रज्ञावाला, भिक्षु चाहे काली (भुसी आदि) चुनकर बने शाली के भात को, अनेक सूप और व्यंजन के साथ खाये, तो भी उसको अन्तराय (= विघ्न) नहीं होगा। भिक्षुओ! जैसे मैला कुचैला वस्त्र स्वच्छ जल को प्राप्त हो शुद्ध साफ हो जाता है; उल्कामुख (= भट्ठी की घडिया) मे पडकर सोना शुद्ध साफ हो जाता है; ऐसे ही भिक्षुओ! ऐसे शीलवाला, ऐसे धर्मवाला, ऐसी प्रज्ञावाला भिक्षु चाहे ॰ शालील के भात को ॰।
“वह मैत्री-युक्त चित्त से एक दिशा को परिपूर्णकर विहरता है, वैसे ही दूसरी दिशा को, वैसे ही तीसरी ॰, ॰ चैथी ॰। इस प्रकार ऊपर नीचे आड़े-बेड़े, सबका विचार रखने वाला, सबके अर्थ, विपुल, महान् प्रमाणरहित, वैररहित, व्यापार-रहित, मैत्री-युक्त चित्त से सारे लोक को पूर्णकर विहार करता है।
“वह करूणा-युक्त चित्त से एक दिशा को ॰। मुदिता-युक्त चित्त से एक दिशा को ॰। उपेक्षा-युक्त चित्त से एक दिशा को ॰।
“वह जानता है कि ‘यह निकृष्ट है’, ‘यह उत्तम (= प्रणीत) है’—इन (लौकिक) संज्ञाओ से ऊपर निस्सरण (= निकास) है। ऐसा जानते, ऐसा देखते हुये, उसका चित्त काम (वासना रूपी) आस्रव से मुक्त हो जाता है, भव-आस्रव से ॰, अविद्या-आस्रव से॰। मुक्त (= छूट) जाने पर, ‘मुक्त हो गया हूँ’—यह ज्ञान होता है; और जानता है—जन्म क्षीण हो गया, ब्रह्मचर्यवास समाप्त हो गया, करना था सो कर लिया, अब दूसरा यहाँ (कुछ करने को) नहीं है। भिक्षुओ! यह भिक्षु स्नान करे बिना ही सनात (= नहाया) कहा जाता है।”
उस समय सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण भगवान् के अविदूर में बैठा था। तब सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण भगवान् से यह कहा—
“क्या आप गौतम स्नान के लिये बाहुकानदी चलेंगे?”
“ब्राह्मण! बाहुकानदी से क्या (लेना) है? बाहुकानदी क्या करेगी?”
“हे गौतम! बाहुकानदी लोकमान्य (= लोक-संमत) है, बाहुकानदी बहुत जनों द्वारा पवित्र (= पुण्य) मानी जाती है। बहुत से लोग बहुकानदी में (अपने) किये पापों को बहाते हैं।”
जब भगवान् ने सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को गाथाओं में कहा—
“बाहुका, अविकक्क, गया, और सुन्दरिका मे।
सरस्वती, और प्रयाग तथा बाहुमती नदी मे
काले कर्मोंवाला मूढ़ चाहे नित्य नहाये, (किन्तु) शुद्ध नहीं होगा।
क्या करेगी सुन्दरिका, क्या प्रयाग, और क्या बाहुलिका नदी?
(वह) पापकर्मी=कृतकिल्विष दुष्ट नर को नहीं शुद्ध कर सकते।
शुद्ध (नर) के लिये सदा ही फल्गु है, शुद्ध के लिये सदा ही उपोसथ1 है।
शुद्ध और शुचिकर्मा के व्रत सदा ही पूरे होते रहते हैं।
ब्राह्मण! यहीं नहा, सारे प्राणियों का क्षेम कर।
यदि तू झूठ नहीं बोलता, यदि प्राण नहीं मारता।
यदि बिना दिया नहीं लेता, (और) श्रद्धावान् मत्सर-रहित है।
(तो) गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय (= उदपान) भी तेरे लिये गया है।”
ऐसा कहने पर सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान् को यह कहा—
“आश्चर्य! हे गौतम!! आश्चर्य! हे गौतम!॰ 2 यह मैं भगवान् गौतम की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघ की भी। आप गौतम के पास मैं प्रब्रज्या (= संन्यास) पाऊँ, उपसम्पदा3 पाऊँ।”
सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान् के पास प्रब्रज्या, उपसम्पदा पाई। उपसम्पदा पाने के बाद, आयुष्मान् भारद्वाज एकान्त में प्रमादरहित, उद्योगयुक्त, आत्मनिग्रही हो विहरते, थोड़े ही समय मे जिसके लिये कुलपुत्र घर से बेघर हो प्रव्रजित होते हैं, उस अनुपम ब्रह्मचर्य के अन्त (= निर्वाण) को, इसी जन्म में स्वयं जानकर, साक्षात्कर, प्राप्त कर विहरने लगे। ‘जन्म क्षीण हो गया॰4 नहीं है’—जान लिया। आयुष्मान् भारद्वाज अर्हतों में से एक हुये।