मज्झिम निकाय

74. दीघनख-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् राजगृह में, गृध्रकूट पर्वत पर शूकरखाता में विहार करते थे।

तब दीघनख (= दीर्घनख) परिब्राजक जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान् के साथ सम्मोदन…कर एक ओर खडा हो गया। एक ओर खडे हुये दीर्घनख परिब्राजक ने भगवान् से यह कहा—

“भो गौतम! मैं इस वाद=इस दृष्टि का मानने वाला हूँ—‘सभी (मत) मुझे पसन्द नहीं’।

“अग्निवेश! क्या तुझे ‘सभी मुझे पसन्द नहीं’—यह दृष्टि भी पसन्द नहीं है?”

“भो गौतम! यदि वह दृष्टि मुझे पसन्द हो, तो ‘यह भ वैसी ही हो, वह भी वैसी ही हो’।”

“इसलिये अग्निवेश! तुझसे बहुत अधिक (पुरूष) लोक में हैं, जो ऐसा कहते है—‘यह भी वैसा ही है, यह भी वैसा ही है’, (किन्तु) वह उस दृष्टि को नहीं छोडते, और दूसरी दृष्टि को ग्रहण करते है। और अग्निवेश! ऐसे (पुरूष) लोक मे अत्यन्त कम हैं, जो ऐसा कहते है—‘यह भी वैसा ही हैं, यह भी वैसा ही हैं’ और उस दृष्टि को छोड देते हैं, और दूसरी दृष्टि को भी नहीं ग्रहण करते।

“अग्निवेश! कोई कोई श्रमण-ब्राह्मण इस वाद=इस दृष्टि को मानने वाले हैं—‘मुझे सभी (मत) पसन्द हैं (= खमति)’। ० कोई कोई ० इस दृष्टि के मानने वाले है—‘मुझे सभी पसन्द नहीं’। अग्निवेश! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण इस दृष्टि के मानने वाले हैं—‘मुझे कोई कोई (मत) पसन्द हैं, कोई कोई नहीं पसन्द है’।”

“अग्निवेश! जो श्रमण-ब्राह्मण इस वाद=इस दृष्टि के मानने वाले है—‘सभी मुझे पसन्द नहीं’, उनकी यह दृष्टि सराग (= रागयुक्त होने की अवस्था) के समीप हैं, संयोग के समीप हैं, अभिनंदन के समीप है, अध्यवसान (= ग्रहण) के समीप हैं, उपदान (= पाने की कोशिश) के समीप है। अग्निवेश! जो ० इस दृष्टि के मानने वाले हैं—‘मुझे सभी पसंद हैं’; उनकी यह दृष्टि अ-सराग=अ-संयोग, अन्-अभिनंदन, अन्-अध्यवसान, अन्-उपादन के समीप है।”

ऐसा कहने पर दीर्घनख परिब्राजक ने भगवान् से यह कहा—“आप गौतम मेरी दृष्टि का उत्कर्ष (= प्रशंसा) करते हैं, आप गौमत मेरी दृष्टि का सम्-उत्कर्ष करते है।”

“अग्निवेश! जो श्रमण-ब्राह्मण ० इस दृष्टि के मानने वाले हैं—‘मुझे कोई कोई पसन्द हैं; कोई कोई नहीं पसन्द हैं।’ उनको जो दृष्टि पसन्द नहीं हैं, वह सराग के समीप है ०; उनको जो दृष्टि पसन्द नहीं हैं, वह अ-सराग के समीप है ०।

“अग्निवेश! जो श्रमण-ब्राह्मण ० इस दृष्टिब् के मानने वाले हैं—‘सभी मुझे पसन्द हैं’; उनके विषय में विज्ञ पुरूष यह सोचता है—जो यह मेरी दृष्टि है—‘सभी मुझे पसन्द है’; इस दृष्टि को यदि मैं मजबूती से पकडकर आग्रह करके कहूँ—‘यही सच है, और (सब मत) झूठा हैं’, तो दो (वादियों) के साथ मेरा विग्रह (= विवाद) होगा—(1) वह श्रमण-ब्राह्मण, जो कि ० इस दृष्टि के मानने वाले है—‘मुझे सभी पसन्द हैं’; और (2) वह ० जो कि ० इस दृष्टि के मानने वाले है—‘मुझे कोई कोई पसंद हैं, कोई कोई नहीं पसन्द हैं’। इन दोनों के साथ मेरा विग्रह होगा; विग्रह होने पर विवाद होगा, विवाद होने पर विघात (= पीडा) होगा, विघात होने पर विहिंसा (= हिंसा) होगी। इस प्रकार अपने में विग्रह, विवाद, विघात, और विहिंसा को देखते हुये, उस दृष्टि को छोड देता है। इस प्रकार इन दृष्टियों का प्रतिनिस्सर्ग (= त्याग) होता है।

“अग्निवेश! जो श्रमण-ब्राह्मण ० इस दृष्टि के मानने वाले हैं—‘मुझे सब पसंद नहीं हैं’। इस बारे में विज्ञ पुरूष यह सोचता हैं—जो यह मेरी दृष्टि हैं—‘मुझे सब पसंद नहीं हैं’; इस दृष्टि को यदि मैं ० आग्रह कर के कहूँ—‘यही सच हैं, और झूठ हैं’, तो दो के साथ मेरा विग्रह होगा—(1) वह ० जो कि ० इस दृष्टि को मानने वाले हैं—‘मुझे सब पसंद हैं’; और (2) ०—‘मुझे कोई कोई पसंद है, कोई कोई नहीं पसंद है।’ इन दोनों के साथ मेरा विग्रह होगा ०। इस प्रकार इन दृष्टियो का परित्याग होता है।

“अग्निवेश! जो श्रमण-ब्राह्मण ० इस दृष्टि के मानने वाले हैं—‘मुझे कोई कोई पसंद हैं, कोई कोई नहीं पसंद है’। इस बारे में विज्ञ पुरूष यह सोचता है—० जो यह मेरी दृष्टि हैं—‘मुझे कोई कोई ० तो दो के साथ विग्रह होगा—(1) ०—‘मुझे सब पसन्द हैं’; और (2) ०—‘मुझे सब पसंद नहीं है’। इन दोनों के साथ मेरा विग्रह होगा ०। इस प्राकर इन दृष्टियों का परित्याग होता है।

“अग्निवेश! यह काया रूपी (= रूप से बनी)=चार महाभूतों से बनी, माता-पिता से उत्पन्न, दाल-भात (= ओदन-कुल्माष) से वर्द्धित, अनित्य-उत्पादन (= ० विनाश)-परिमर्दन-भेदन (= टूटना)-विध्वंसन धर्मो (= स्वभावों) वाली हैं, (इसे मुझे) अनित्य के तौर पर, दुःख-रोग-गंड (= फोडा)-शल्य (= फर, काँटा)-अघ-आबाधा (= बीमारी)-परकीय-नाशमान-शून्य-अनात्मा (= आत्मा नहीं) के तौर पर समझना चाहिये। इस काया को अनित्य के तौर पर ० समझने से उसका इस काया में छन्द (= राग), स्नेह, अन्वयता (= संबंधी भाव) नष्ट हो जाता है।

“अग्निवेश! यह तीन वेदनायें (अनुभव) है?—(1) सुखा (= सुख रूप मालूम होने वाली) वेदना; (2) दुःखा वेदना; (3) अदुःख-असुखा-वेदना। अग्निवेश! जिस समय (आदमी) सुखा वेदना को अनुभव (वेदन) करता हैं, उस समय न दुःखा वेदना को अनुभव करता है, नही अदुःख-असुखा वेदना को; सुखा वेदना को ही उस समय अनुभव करता है। अग्निवेश! जिस समय दुःखा वेदना को अनुभव करता है ०। अग्निवेश! जिस समय अदुःख-असुखा वेदना को अनुभव करता है, उस समय न सुखा वेदना को अनुभव करता हैं, न हीं दुःखा वेदना को, ०।

“अग्निवेश! सुखा वेदना भी अनित्य, संस्कृत, (= कृत), =प्रतीत्य-समुत्पन्न (कारण से उत्पन्न), क्षय-धर्मा (= क्षय स्वभाव वाली) =व्यय-धर्मा, विराग-धर्मा, निरोध-धर्मा है। अग्निवेश! दुःखा वेदना भी अनित्य ० निरोध-धर्मा है। अग्निवेश! अदुःख-असुख वेदना अनित्य ० निरोध-धर्मा है। अग्निवेश! ऐसा समझ श्रुतवान् (= बहुश्रुत) आर्य-श्रावक सुखा वेदना से भी निर्वेद (= उदासीनता) को प्राप्त होता है, दुःखा वेदना से भी निर्वेद को प्राप्त होता है, अदुःख-असुखा वेदना से भी निर्वेद को प्राप्त होता है। निर्वेद को प्राप्त हो विरक्त होता है, विराग को प्राप्त हो विमुक्त होता है, विमुक्त होने पर—‘मैं विमुक्त हूँ’ यह ज्ञान होतो है; ‘जन्म खतम हो गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, करना था सो कर लिया, अब यहाँ (करने) के लिये कुछ (शेष) नहीं है—यह जान लेता है। अग्निवेश! इस प्रकार विमुुक्त-चित्त (= मुक्त) भिक्षु न किसी के साथ संवाद करता है, न विवाद करता है; संसार में जो कुछ कहा गया है, आग्रह-रहित हो उसी से (कथन) व्यवहार करता है।”

उस समय आयुष्मान् सारिपुत्र भगवान् के पीछे खडे हो, भगवान् को पंखा झल रहे थे। तब आयुष्मान् सारिपुत्र को यह हुआ—‘भगवान् हमें जानकर उन उन धर्मो को छोडने को कहते हैं, सुगत हमंे जानकर उन उन धर्मों को त्यागने को कहते है। इस प्रकार सोचते हुये आयुष्मान् सारिपुत्र का चित्त आस्रवों (= चित्त-मलों) से अलग हो मुक्त हो गया। और दीर्घनख परिब्राजक को (यह) विरज=विमल धर्म-चक्षु उत्पनन हुआ—‘जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, वह सब नाशमान (= निरोध-धर्मा) है’।

तब दृष्ट-धर्म (= जिसने धर्म को देख लिया) =प्राप्त-धर्म, विदित-धर्म=पर्यवगाढ-धम्र, संशय-रहित, वाद विवाद-रहित, वैशारद्य-प्राप्त (= मर्मज्ञ) शास्ता के शासन (= बुद्धधर्म) में परम श्रद्धालु हो दीर्घनख परिब्राजक ने भगवान् से यह कहा—“आश्चर्य! भो गौतम! आश्चर्य!! भो गौतम! जैसे औंधे को सीधा कर दे, ०। आप गौतम आज से मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।”