मज्झिम निकाय

76. सन्दक-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगावन् कौशाम्बी के घोषिताराम में विहार करते ोि। उस समय पाँच सौ परिब्राजकों की महापरिब्राजक-परिषद् के साथ, सन्दक परिब्राजक प्लक्षगुला में वास करता था।

आयुष्मान् आनन्द ने सायंकाल ध्यान से उठ, भिक्षुओं को संबोधित किया—

“आवुसो! आओ जहाँ देवकट-सोब्भ (= देवकृत-श्वभ्र=स्वभाविक अगम-कूप) हैं, वहाँ देखने के लिये चलें।”

“अच्छा आवुस! (कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मन् आनन्द को उत्तर दिया। तब आयुष्मान् आनन्द बहुत से भिक्षुओं के साथ, जहाँ देवकट-सोब्भ था, वहाँ गये। उस समय सन्दक परिब्राजक राजकथा राज-कथा, चोर-कथा, माहात्म्य-कथा, सेना-कािा, भय-कथा, युद्ध-कथा, अन्न-कथा, पान-कथा, वस्त्र-कथा, शयन-कथा, गंध-कथा, माला-कथा, ज्ञाति (= कुल)-कथा, यान (= युद्ध-यात्रा)-कथा, कुम्भ-स्थान (= पनघट)-कथा, पूर्वपे्रत (= पहिले मरों की)-कथा, नानात्व-कथा, लोक-आख्यायिका, समुद्र-आख्यायिक, इतिभवाभव (= ऐसा हुआ, ऐसा नहीं हुआ)-कथा आदि निरर्थक कथा कहती, नाद करती, शोर मचाती, बडी भारी परिब्राजक-परिषद् से साथ, बैठा था। सन्दक परिब्राजक ने दूर ही से आयुष्मान् आनन्द को आते देखा। देखकर अपनी परिषद् से कहा—‘आप सब चुप हों। मत…शब्द करे। यह श्रमण गौतम का श्रावक श्रमण आनंद आ रहा है। श्रमण गौतम के जितने श्रावक कौशाम्बी में वास करते हैं, उनमें एक, यह श्रमण आनन्द है। यह आयुष्मान् लोग निःशब्द-प्रेमी, अल्प-शब्द-प्रशंसक होते है। परिषद् को अल्पशब्ल देख, संभव है (इधर) भी आयें।“तब वह परिब्राजक चुप हो गये।

तब आयुष्मान् आनंद जहाँ संदक परिब्राजक था, वहाँ गये। संदक परिब्राजक ने आयुष्मान् आनन्द से कहा—

“आइये आप आनन्द! स्वागत है आप आनन्द का। चिरकाल वाद आप आनन्द यहाँ आये। बैठिये आप आनन्द, यह आसन बिछा है।”

आयुष्मान् आनन्द बिछे आसन पर बैठ गये। संदक परिब्राजक भी एक नीचा आसन ले, एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे, संदक परिब्राजक से आयुष्मान् आनन्द नहे कहा—

“संदक! किस कथा में बैठे थे, बीच में क्या कथा हो रही थी?”

“जाने दीजिये इस कथा को, भो आनन्द! जिस कथा में कि हम इस समय बैठे थे। ऐसी कथा आप आनन्द को पीछे भी सुनने को दुर्लभ न हागी। अच्छा हो, आप आनन्द ही अपने आचार्यक (= धर्म)-विषयक धार्मिक-कथा कहें।”

“तो सन्दक! सुनों, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूँ।”

“अच्छा भो!” (कह) सन्दक परिब्राजक ने आयुष्मान् आनन्द को उत्तर दिया। आयुष्मान् आनन्द ने कहा—

“सन्दक! उन जानकार, देखनहार, सम्यक्-संबुद्ध भगवान् ने चार अ-ब्रह्मचर्य-वास कहे हैं, और चार आश्वासन न देने वाले ब्रह्मचर्य-वास (= संन्यास) कहे हैं; जिनमे विज्ञ-पुरूष अपनी शक्तिभर ब्रह्मचर्य-वास न करें। वास करने पर न्याय (= निर्वाण), कुशल (= अच्छे)-धर्म को न पा सकेगा।

“हे आनन्द! उन ॰ भगवान् ने कौन से चार अ-ब्रह्मचर्य वास ॰ कहे हैं॰?”

(1) “सन्दक! यहाँ एक शास्ता (= गुरू, पंथ चलाने वला) ऐसा वाद (= दृष्टि) रखने वाला होता है—‘नहीं है दान (का फल), नहीं है यज्ञ (का फल), नहीं है हवन (का फल) नहीं है सुकृत-दुष्कृत कर्मो का फल=विपाक; यह लोक नहीं है, पर-लोक नहीं है, माता नहीं, पिता नहीं। औपपातिक (= अयोनित, देव आदि) प्राणी नहीं है। लोक में (ऐसे) सत्य को प्राप्त (= सम्यग्-गत) सत्यारूढ श्रमण ब्राह्मण नहीं हैं, जो कि इस लोक परलोक को स्वयं जान कर, साक्षात् कर, (दूसरों को) जतलावेंगे। यह पुरूष चातुर्महाभूतिक (= चार भूतो का बना) है। जब मरता है, पृथिवी-काय (= पृथिवी) में मिल जाती है, चली जाती है। आप (= पानी) आप-काया में मिल जाता ॰ हैं। तेज (= अग्नि) तेज-काय में मिल जाता ॰ है। वायु वायु-काय में मिल जाता ॰ है। इन्द्रियाँ आकाश में (चली) जाती है। पुरूष मृत (शरीर) को खाट पर ले जाते है। जलाने तक पद (= चिन्ह) जान पडते हे। (फिर) हड्डियाँ कबुतर के (पंखे) सी (सफेद) हो जाती है। (पूर्वकृत) आहुतियाँ राख (हो) रह जाती है। यह दान मूर्खों का प्रज्ञापन (= उपदेश) है। जो कोई आस्तिक-वाद कहते हैं; वह उनका तुच्छ=झूठ है। मूर्ख या पंडित (सभी) शरीर छोडने पर उच्छिन्न हो जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं, मरने के बाद (कोई) नहीं रहता। इस विषय में विज्ञपुरूष ऐसे विचारता है—‘यह आप शास्ता इस वाद (= दृष्टि) वाले हैं—नहीं है दान ॰’। यदि इन आप शास्ता का वचन सत्य है, तो (पुण्य) बिना किये भी, मैने कर लिया, (ब्रह्मचर्य) बिना वास किये भी, वास कर लिया। इस प्रकार नास्तिक गुरू और मैं—हम दोनो ही यहाँ बराबर श्रामण्य (= संन्यास) हो प्राप्त हैं। मैं नहीं कहता—(हम) दोनों काया छोड उच्छिन्न=विनष्ट होंगें, मरने के बाद नहीं रह जायेंगे। (फिर) यह आप शास्ता की (यह) नग्नता, मुंडता, उकडूँ-तप (= उक्कुटिकप्पधान) केशयमुश्रु-नोचना फजूल है।’ और जो मैं पुत्राकीर्ण हो, घर (= शयन) में वास करते, काशी के चंदन का मजा लेते, माला सुगंध-लेप धारण करते, सोना-चाँदी का रस लेते, मरने पर इन आप शास्ता के समान गति पाऊँगा। सो मैं क्या समझ कर, क्या देख कर, इन (नास्तिक-वादी) शास्ता के पास ब्रह्मचर्य पालन करूँ। (इस प्रकार) ‘यह अ-ब्रह्मचर्य-वास है’ समझ, वह, उस ब्रह्मचर्य (= साधुपन) से उदास हो हट जाता है। यह सन्दक! उन ॰ भगवान् ने प्रथम अ-ब्रह्मचर्य-वास कहा है, जिसमें विज्ञ-पुरूष ॰।

(2) “और फिर सन्दक! यहाँ एक शास्ता ऐसे वाद (= मत) वाला होता हैं—‘करते— करवाते, काटते-कटवाते, पकाते-पकवाते, शोक कराते, परेशान कराते, मथते-मथाते, प्राण मारते, चोरी करते, सेंध लगाते, गाँव लूटते, , घर लूटते, रहजनी करते, पर-स्त्री गमन करते, झूठ बोलते भी पाल नहीं किया जाता। छुरे से तेज चक्र-द्वारा जो इस पृथिवी के प्राणियों का (कोई) एक माँस का खलियान, एक माँस का पुंज बना दे, तो इसके कारण उसे पाप नहीं होगा; पाप का आगमन नहीं होगा। यदि घात करते-कराते, काटते-कटाते, पकाते-पकवाते, गंगा के दाहिने तीन पर भी जाये; तो भी इसके कारण उसको पाप नहीं, पाप का आगम नहीं होगा। दान देते दान दिलाते, यज्ञ करते यज्ञ कराते, गंगा के उत्तर तीर भी जाये, तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं, पुण्य का आगम नहीं होता’। दान, (इन्द्रिय) दम, संयम, सच्चेपन (= संज-वज्ज) से पुण्य नहीं, पुण्य का आगम नहीं होता। सन्दक! विज्ञ-पुरूष ऐसा विचारता है—यह आप शास्ता इस वाद=दृष्टि-वाले हैं-करते-करवतें ॰। यदि इन आप शास्ता का वचन सच हे ॰। तो इम दोनो ही बराबर श्रामण्य (= संन्यास) को प्राप्त हैं, …. ‘दोनों ही के करते पाप नहीं किया जाता’। यह आप शास्ता की नग्नता ॰। ॰। यह सन्दक! उन ॰ भगवान् ने द्वितीय अ-ब्रह्मचर्य-वास कहा है ॰।

(3) “और फिर सन्दक! यहाँ एक शास्ता ऐसे वाद (= दृष्टि) वाला होता है—‘सत्वां के संक्लेश का कोई हेतु=कोई प्रत्यय नहीं। बिना हेतु बिना प्रत्यय के प्राणी संक्लेश (= चित्त-मालिम्ब) को प्राप्त होते हैं। प्राणियों की (चित्त) विशुद्धि का कोई हेतु=प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु=प्रत्यय के प्राणी विशुद्ध होते है। बल नहंी, (चाहियें), वीर्य नहीं पुरूष का स्थाम (= दृढता) नहीं=पुरूष-पराक्रम नहीं (चाहिये), सभी सत्व=सभी प्राणी=सभी भूत=सभी जीव अ-वश=अ-बल=अ-वीर्य नियत (= भवितव्यता) के वश में हो, छओं अभिजातियों में सुख दुःख अनुभव करते हैं। ॰ यदि ॰ इन आप शास्ता का वचन सत्य हैं ॰। तो हम दोनों ही हेतु=प्रत्यय बिना ही शुद्ध हो जायेंगे। ॰। यह सन्दक! भगवान् ने तृतीय अ-ब्रह्मचर्य वास कहा है ॰।

(4) “और फिर सन्दक! यहाँ एक शास्ता ऐसी दृष्टि-वाला होता है—‘यह सात अकृत=अकृतविध=अ-निर्मित=निर्माता-रहित, अवध्य=कूटस्ाि, स्तम्भवत् (अचल) हैं; यह चल नहीं होते, विकार को प्राप्त नहीं होते, न एक दूसरे को हानि पहूँचाते हैं; न एक दूसरे के सुख, दुःख, या सुख-दुःख के लिये पर्याप्त हैं। कौन से सात?—पृथिवी-काय, आप-काय, तेज-काय, वायु-काय, सुख, दुःख और जीव—यह सात। यह सात काय अकृत ॰ सुख-दुःख के योग्य नहीं है। यहाँ न हन्ता (= मारनेवाला) है, न घातयिता (= हनन करने वाला), न सुनने वाला, न सुनाने वाला, न जानने वाला, न जतलाने वाला। जो तीक्ष्ण-शस्त्र से शीश भी छेदते है, (तो भी) कोई किसी को प्राण से नहीं मारता। सातों कायों से अलग, विवर (= खाली जगह) में शस्त्र (= हथियार) गिरता है। यह प्रधान-योनि—चैदह सौ-हजार (दूसरी) साठ-सौ, छियासठ-सौ, और पाँच सौ कर्म, और पाँच कर्म और तीन कर्म, (एक) कर्म, और आधा कर्म, बासठ प्रतिपद्, बासठ अन्तर-कल्प, छः अभिजाति, आठ पुरूष की भूमियाँ, उंचास सौ आजीवक, उंचास सौ परिब्राजक, उंचास नागों के आवास, बीस सौ इन्द्रिय, तीस सौ नरक, छत्तिस रजो-धातु, सात संज्ञावान् गर्भ, सात असंज्ञी गर्भ, सात निग्र्रंथी गर्भ, सात देच, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात सरोवर, सात गाँठ (= पमुट), सात प्रपात, सात सौ प्रपात, सात स्वप्न, सात सौ स्वप्न—(इनमें) चैरासी हजार महा— कल्पों तक दौडकर=आवागमन में पडकर, मूर्ख और पंडित (सभी) दुःख का अंत (= निर्वाण-प्राप्ति) करेंगे। वहाँ (यह) नहीं है—इस शील या व्रत, या तप, ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को पचाऊँगा, परिपक्व कर्म को भोगकर अन्त करूंगां सुख, दुःख, द्रोण (नाप) से नपे तुले हुए हैं, संसार में घटाना बढाना, उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं होता। जैसे कि सूत की गोली फेंकने पर उघरती हूई गिरती है, ऐसे ही मूर्ख (= पाल) और पण्डित दौड कर=आवागमन मंे पड कर, दुःख का अंत करेंगे।’ वहाँ सन्दक! विज्ञ-पुरूष ऐसे विचारता है—यह आप शास्ता ऐसे वाद=दृष्टि वाले हैे ॰। जैसे की सूत की गोली ॰। यदि इन आप शास्ता का वचन सत्य है, तो बिना किये भी मैंने कर लिया। ॰ यह आप शास्ता की नग्नता ॰। यह सन्दक! उन ॰ भगवान् ने चतुर्थ अ-ब्रह्मचर्य-वास कहा है ॰।

“सन्दक! उन ॰ भगवान् ने यह चार अ-ब्रह्मचर्य-वास कहे है ॰।”

“आश्चर्य! भो आनन्द!! अद्भुत! भो आनन्द!! जो उन ॰ भगवान् ने यह चार अ-ब्रह्मचर्य-वास कहे हैं ॰। किन्तु, भो आनन्द! उन ॰ भगवान् ने कौनसे चा अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य कहे है ॰?”

(1) “सन्दक! यहाँ एक शास्ता सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अशेष-ज्ञान-दर्शन वाला होने का दावा करता है—‘चलते, खडे होने, सोते, जागते, सदा सर्वदा मुझे ज्ञान-दर्शन मौजूद (= प्रतयुपस्थित रहता है।’ (तो भी) वह सूने घर में जाता है, (वहाँ) भिक्षा भी नहीं पाता, कुक्कुर भी काट खाता है, चंड-हाथी से भी सामना पड जाता है, चंड घोडे से भी सामना पड जाता है, चंड-बैल से भी ॰। (सर्वज्ञ होने पर भी) स्त्री-पुरूषों के नाम-गोत्र को पूछता है। ग्राम-निगम का नाम और रास्ता पूछता है। ‘(आप सर्वज्ञ होकर) यह क्या (पूछते हैं)’—पूछने पर कहता है—‘सूने घर में हमारा जाना यदा था, इसलिये गये। भिक्षा न मिलनी बदी थी, इसलिये न मिली। कुक्कुर का काटना बदा था ॰ हाथी से मिलना बदा था ॰। ॰ वहाँ सन्दक! विज्ञ-पुरूष यह सोचता है—यह आप शास्ता ॰ दावा करते हैं ॰ (तब) वह—‘यह ब्रह्मचर्य (= पंथ) अनाश्वासिक (= मन को संतोष न देने वाला) हैं’—यह जान, उस ब्रह्मचर्य से उदास हो हट जाता है। यह सन्दक! उस ॰ भगवान् ने प्रथम अनाश्वासकि ब्रह्मचर्य कहा है ॰।

(2) “और फिर सन्दक! यहाँ एक शास्ता आनुश्रविक=अनुश्रव (श्रुति) को सत्य मानने वाला होता है। ‘(श्रुति में) ऐसा’, (स्मृति में) ऐसा’, परम्परा से, पिट कसप्रदाय (= ग्रंथ-प्रमाण) से, धर्म का उपदेश करता है। सन्दक! आनुश्रविक=अनुश्रव को सच मानने वाले शास्ता का अनुश्रव सुश्रुत (= ठीक सुना) भी हो सकता है, दुःश्रुत भी; वैसा (= यथार्थ) भी हो सकता है, उल्टा भी हो सकता है। यहाँ सन्दक! विज्ञ-पुरूष यह सोचता है—यह आप शास्ता आनुश्रविक हैं ॰। यह ‘यह ब्रह्मचर्य अनाश्वासिक है’ ॰। ॰ द्वितीय अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य कहा है ॰।

(3) “और फिर सन्दक! यहाँ एक शास्ता तार्किक=विमर्शी होता है। यह तर्क से=विमर्श से प्राप्त, अपनी प्रतिभा से ज्ञात, धर्म का उपदेश करता है। सन्दक! तार्किक=विमर्शक (= मीमांसक) शास्ता का (विचार) सुतर्कित भी हो सकता है, दुः-तर्कित भी। वैसे (= यथार्थ) भी हो सकता है, उलटा भी हो सकता है ॰। ॰। ॰। ॰ तृतीय अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य कहा है ॰।

(4) “और फिर सन्दक! यहाँ एक शास्ता मन्द=अति-मूढ (= मोमुह) होता है। वह मन्द होने से, अति-मूढ होने से वैसे वैसे प्रश्न पूछने पर, वचन से विक्षेप को=अमरा-विक्षेप को प्राप्त होता है—‘ऐसा भी मेरा (मत) नहीं, वैसा (= तथा) भी मेरा नहीं, अन्यथा भी मेरा (मत) नहीं, नहीं भी मेरा (मत) नहीं, न-नहीं भी मेरा (मत) नहीं।’ यहाँ सन्दक! विज्ञ-पूरूष यह सोचता है ॰। ॰। ॰। ॰ चतुर्थ अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य कहा है ॰।

“सन्दक! उन ॰ भगवान् ने यह चार अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य कहे हैं ॰।”

“आश्चर्य! भो आनन्द!! अद्भुत! भो आनन्द!! जो यह उन ॰ भगवान् ने चार अनाश्वासिक ब्रह्मचर्य कहे है ॰। किन्तु भो आनन्द! वह शास्ता किस वाद=किस दृष्टि वाला होना चाहिये, जहाँ विज्ञ-पुरूष स्व-शक्तिभर ब्रह्मचर्य-वास करें, वास कर न्याय=कुशल-धर्म की आराधना करें ॰?”

“सन्दक! यहाँ तथागत लोक में उत्पन्न होते हैं ॰ उस धर्म को गृहपति या गृहपति-पुत्र सुनता है ॰। यह संशय को छोड संशय-रहित होता है। वह इन पाँच नीवरणों को हटा चित्त के दुर्बल करने वाले उपक्लेंशों (= चित्तमलों) को जान, कामों से अलग हो, अकुशल-धर्मो से अलग हो, प्रथम-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। सन्दक! जिस शास्ता के पास श्रावक इस प्रकार के बउे (= उदार) विशेष को पावें, वहाँ विज्ञ-पुरूष स्वशक्तिभर ब्रह्मचर्य-वास करे ॰।

“और फिर सन्दक! ॰ द्वितीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है ॰। ॰.। ॰ तृतीय-ध्यान ॰। ॰। ॰ चतुर्थ-ध्यान ॰। ॰। ॰ पूर्व जन्मों का स्मरण करता है ॰। ॰। ॰ कर्मानुसार जन्मते सत्वों को जानता है ॰। ॰। ॰ ‘अब यहाँ दूसरा कुछ करना नहीं रहा’—जानता है ॰। ॰।”

“भो आनन्द! वह जो भिक्षु ॰ अर्हत् (= मुक्त) है, क्या वह कामों का भोग करेगा?”

“सन्दक! जो वह भिक्षु ॰ अर्हत् है, वह (इन) पाँच बातों में असमर्थ है। क्षीण-आस्रव (= अर्हत्, मुक्त) भिक्षु (1) जानकर प्राण नहीं मार सकता। (2) ॰ चोरी नहीं कर सकता। (3) ॰ मैथुन सेवन नहीं कर सकता। (4) जानकर झूठ नहीं बोल सकता। (5) क्षीणास्रव भिक्षु एकत्रित कर (अन्न पान आदि, ) काम-लोगो को भोग करने के अयोग्य है; जैसे कि वह पहिले गृही होते भोगता था। ॰।”

“भो आनन्द! जो वह अर्हत्=क्षीणास्रव भिक्षु है, क्या उसे चलते-बैठते, सोते-जागते निरन्तर…(यह) ज्ञान दर्शन मौजूद रहता हैं—‘मेरे आस्रव (= चित्तमल) क्षीण हो गये।’

“तो सन्दक! तेरे लिये एक उपमा देता हूँ। उपमा से भी कोई कोई विज्ञ-पुरूष कहने का मतलब समझ लेते हैं। सन्दक! जैसे पुरूष के हाथ-पैर कटे हो, उसके चलते-बैठते, सोते-जागते निरंतर (होता है), मेरे हाथ-पैर कटे है। इसी प्रकार सन्दक! जो वह अर्हत्=क्षीणास्रव भिक्षु है, उसके ॰ निरंतर …आस्रव क्षीण ही हैं, वह उसकी प्रत्यवेक्षा करके जानता है—‘मेरे-आस्रव क्षीण है।”

“भो आनन्द! इस धर्म-विनय (= धर्म) में कितने मार्ग-दर्शक (= निर्याता) हैं?”

“सन्दक! एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, ती सौ ॰, चार सौ ॰, पाँच सौ ॰, बल्कि और भी अधिक निर्याता इस धर्म-विनय में है।”

“आश्चर्य! भो आनन्द!! अद्भुत! भो आनन्द!! न अपने धर्म का उत्कर्ष (= तारीफ) करना, न पर-धर्म की निन्दा करना, (ठीक) जगह (= आयतन) पर धर्म उपदेशना!! इतने अधिक मार्ग-दर्शक जान पडते!! यह आजीवक पूत-मरी के पूत तो अपनी बडाई करते है। तीन को ही मार्ग-दर्शक (= निर्याता) बतलाते हैं, जैसे कि—नन्द वात्स्य, कृश सांकृत्य और मक्खली गोसाल।”

तब सन्दक परिब्राजक ने अपनी परिषद् को संबोधित किया—

“आप सब श्रमण गौतम के पास ब्रह्मचर्य-वास करें। हमारे लिये तो लाभ-सत्कार प्रशंसा छोडना, इस वक्त सुकर नहीं है।”

ऐसे सन्दक परिब्राजक अपनी परिषद् को भगवान् के पास ब्रह्मचर्य-वास करने के लिये प्रेरित किया।