मज्झिम निकाय
9. सम्मादिट्ठि-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
वहाँ आयुष्मान् सारिपुत्र ने भिक्षुओं को संबोधित किया—“आवुसो भिक्षुओ!”
“आवुस!” (कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र को उत्तर दिया।
आयुष्मान् सारिपुत्र ने यह कहा—“आवुसो! सम्यग्-दृष्टि (= सम्मादिट्िठ) सम्यग्दृष्टि कही जाती है, आवुसो! कैसे आर्यश्रावक (= आर्यधर्मी) सम्यग्दृष्टि (= ठीक सिद्धांत वाला) होता है? उसकी दृष्टि सीधी, वह धर्म में अत्यन्त श्रद्धावान्, (और) इस सद्धर्भ को प्राप्त (होता है)?”
“आवुस! इस भाषण का अर्थ जानने के लिये हम दूर से भी आयुष्मान् सारिपुत्र के पास आते हैं। अच्छा हो, आयुष्मान् सारिपुत्र ही इस वचन का अर्थ कहें। आयुष्मान् सारिपुत्र (के मुख) से सुनकर भिक्षु धारण करेंगे।”
“तो आवुसो! सुनो, अच्छी तरह मन में करो कहता हूँ।”
“अच्छा आवुस!” (कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र को उत्तर दिया।
आयुष्मान् सारिपुत्र ने यह कहा-“जब, आवुसो! आर्यश्रावक अकुशल (= बुराई) को जानता है, अकुशल-मूल को जानता है; कुशल (= भलाई, पुण्य) को जानता है; कुशलमूल को जानता है; इतने से आवुसो! आर्यश्रावक सम्यग्-दृष्टि होता है। उसकी दृष्टि सीधी (होती है), वह धर्म में अत्यन्त श्रद्धावान्, (और) इस सद्धर्भ को प्राप्त होता है।
“क्या है, आवुसो! अ-कुशल? क्या है अ-कुशलमूल? क्या है कुशल? क्या है कुशल-मूल—? आवुसो! (1) प्राणातिपात (= हिसा) अकुशल है;(2) अदत्तादान (= चोरी) अकुशल है; (3) काम (= स्त्री-संसर्ग) में मिथ्याचार (= दुराचार) ॰; (4) मृषावाद (= झूठ बोलना) ॰; (5) पिशुनवचन (= चुगली) ॰; (6) परूषवचन (= कठोर भाषण) ॰; (7) संप्रलाप (= बकवाद) ॰; (8) अभिध्या (= लालच) ॰; (9) व्यापाद (= प्रतिहिसा) ॰; (1॰) मिथ्यादृष्टि (= झूठी धारणा) ॰।—यह आवुसो! अकुशल कहा जाता है। क्या है आवुसो! अकुशल-मूल?— (1) लोभ अकुशल-मूल है, (2) द्वेष ॰ (3) मोह अकुशल-मूल है।—यह आवुसो! अकुशल-मूल कहा जाता है। क्या है आवुसो! कुशल?—(1) प्राणतिपात से विरति (= विरत होना) कुशल है; (2) अदत्तादान से विरति ॰; (3) कामों में मिथ्याचार से विरति ॰; (4) मृषावाद से विरति ॰; (5) पिशुनचवन से विरति ॰; (6) परूष-वचन से विरति ॰; (7) संप्रलाप से विरति ॰; (8) अन्-अभिध्या ॰; (9) अ-व्यापाद ॰; (1॰) सम्यग्दृष्टि कुशल है।—यह आवुसो! कुशल कहा जाता है। क्या है आवुसो! कुशलमूल?—(1)अ-लोभ कुशल-मूल है; (2) अ-द्वेष ॰; (3) अ-मोह कुशल-मूल है।—यह आवुसो! कुशल-मूल कहा जाता है। जब आवुसो! आर्यश्रावक इस प्रकाश अकुशल को जानता है, इस प्रकार अकुशल-मूल को जानता है। इस प्रकार कुशल को जानता है। इस प्रकार कुशलमूल को जानता है; (तो) वह राग-अनुशय (= ॰ मल) का परित्यागकर, प्रतिघ (= प्रतिहिंसा) अनुशय को हटाकर, अस्मि (= मैं हूँ) इस दृष्टि-मान (= धारणा के अभिमान)-अनुशय को उन्मूलन कर, अविद्या को नष्ट कर, विद्या को उत्पन्न कर, इसी जन्म मे दुःखो का अन्त करने वाला होता है। इतने से भी आवुसो! आर्य-श्रावक सम्यग्दृष्टि होता है॰।
“ठीक आवुस!” (कह) उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र के भाषण का अभिनन्दन कर अनुमोदन कर, आयुष्मान् सारिपुत्र से आगे का प्रश्न पूछा—“क्या आवुस! और भी पर्याय (= प्रकार) है, जिससे कि आर्यश्रावक सम्यग्-दृष्टि होता है ॰?”
“है, आवुसो! जब आवुसो! आर्यश्रावक आहार को जानता है, आहार-समुदय (= आहार की उत्पत्ति) को जानता है, आहार-निरोध ॰, आहार-निरोध-गामिनी प्रतिपद् (= आहार के विनाश की ओर ले जाने वाले मार्ग) को जानता है। इतने से आवुसो! आर्यश्रावक सम्यग्दृष्टि होता है ॰। क्या है आवुसो! आहार, क्या है आहार-समुदय, ॰ आहार-निरोध, ॰ आहार निरोध गामिनी प्रतिपद्?—आवुसो! सत्त्वों की स्थिति (और) होने वालों की सहायता के लिये भूतों (= प्रणियों) के यह चार आहार हैं। कौन से चार?—(1) स्थूल या सूक्ष्म कवलिंकार (= ग्रास करके खया जाने वाला) आहार, (2) स्पर्श दूसरा (3) मन की संचेतना (= ख्याल) तीसरा, (4) विज्ञान चैथा। तृष्णा समुदय (= उत्पत्ति) (ही) आहार का समुदय है। तृष्णा निरोध आहार का निरोध है। यह आर्य-अष्टांगिक मार्ग आहार-निरोध गामिनी प्रतिपद् है; जैसे कि—(1) सम्यग्-दृष्टि (= ठीक धारणा), (2) सम्यक्-संकल्प, (3) सम्यग्-वचन, (4) सम्यग्-कर्मान्त (= कर्म) (5) सम्यग्-आजीव, (6) सम्यग्-व्यायाम (= ॰ उद्योग), (7) सम्यक्-स्मृति; (8) सम्यक्-समाधि। जब आवुसो! आर्यश्रावक इस प्रकार आहार को जानता है ॰, तो वह सर्वथा रागानुशय का परित्याग कर ॰ दुःखों का अन्त करने वाला होता है। इतने से आवुसो!
“ठीक आवुस!” यह (कह) उन भिक्षुओं ने ॰1 आगे का प्रश्न पूछा—॰1।”
“है, आवुसो! जब आवुसो! आर्यश्रावक दुःख को जानता है, दुःख-समुदय (= दुःख की उत्पत्ति, या कारण) को जानता है, दुःख-निरोध को जानता है, (और) दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपद् को जानता है; तब आवुसो! आर्यश्रावक सम्यग्दृष्टि होता है॰1। क्या है आवुसो! दुःख, क्या है दुःख-समुदय, क्या है दुःख-निरोध, क्या है दुःख निरोध-गामिनी प्रतिपद्?—जाति (= जन्म) भी दुःखउ है, जरा भी दुःख, व्याधि भी दुःख, मरण भी दुःख, शोक परिदेव (= रोना-काँदना) दुःख=दौर्मनस्य (= मनःसंताप) उपायास (= परेशानी) भी दुःख है, किसी (चीज) की इच्छा करके उसे न पाना (यह) भी दुःख है; संक्षेप में पाँचों उपादान (= विषय के तौर पर ग्रहण करने योग्य) स्कन्ध (ही) दुःख हैं। इसे आवुसो! दुःख कहा जाता है। क्या है आवुसो! दुःख-समुदय? यह जो नन्दी उन उन (भोगों) का अभिनन्दन करने वाली, राग से संयुक्त, फिर फिर जन्म ने की तृष्णा है; जैसे कि—(1) काम (= इंद्रिय-संभोग) की तृष्णा, (2) भव (= जन्म ने) की तृष्णा, (3) विभव (= धन) की तृष्णा।—यह आवुसो! दुःख-समुदय कहा जाता है। क्या है आवुसो! दुःख-निरोध?—जो उस तृष्णा का संपूणतया विराग, निरोध, त्याग=प्रतिनिस्सर्ग, मुक्ति, अनालय (= उसमें लीन न होना)।—यह कहा जाता है आवुसो! दुःखनिरोध। क्या है आवुसो! दुःखनिरोध-गामिनी प्रतिपद्?—यह आर्य-अष्टांगिक-मार्ग ॰ है। (4) जैसे कि (1) सम्यग् दृष्टि ॰1 (8) सम्यक्-समाधि। जब आवुसो! आर्य-श्रावक इस प्रकार दुःख को जानता है ॰। ॰। इतने से आवुसो! ॰।
“ठीक, आवुस! ॰1।”
“है, आवुसो! जब आवुसो! आर्यश्रावक जरा-मरण को जानता है, ॰ समुदय ॰, ॰ निरोध ॰, ॰ निरोध गामिनी प्रतिपद् को जानता है, जब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है आवुसो! जरा-मरण, ॰ समुदय, ॰ निरोध, ॰ निरोध-गामिनी प्रतिपद्?—जो उन उन प्राणियों की उन उन प्राणि-शरीरों में जरा (= बुढापा) जीर्णता, खाण्डित्य (= दाँत टूटना), पालित्य (= बाल पकना), वलित्वक्ता (= झुर्री पडना), आयु-क्षय, इन्द्रिय-परिपाक (= ॰ विकार)।—यह कही जाती है आवुसो! जरा क्या है आवुसो! मरण?—जो उन उन प्राणियों की उन उन प्राणि-शरीरों से च्युति=च्यवन होना, भेद (= वियोग), अन्तर्धान, मृत्यु, मरण=कालिक्रिया, स्कन्धों का विलग होना, कलेवर का निक्षेप (= पतन)।—यह कहा जाता है आवुसो! मरण। इस प्रकार यह जरा और यह मरण (दोनों मिलकर) मरा-मरण होते है। जाति-समुदय (= जन्म का होना) जरा-मरण-समुदय है, जाति-निरोध (होने से), जरा-मरण-निरोध होता है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग जरा मरण निरोध गामिनी प्रतिपद् है; जैसे कि ॰1। जब आवुसो! ॰1।”
“ठीक आवुस! ॰1”
“है, आवुसो! जब आवुसो! आर्यश्रावक तृष्णा को जानता है, ॰ समुदय ॰, ॰ निरोध ॰, ॰ निरोधगामिनी प्रतिपद् को जानता है; तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है, आवुसो! तृष्णा, ॰ समुदय, ॰ निरोध, ॰ निरोधगामिनी प्रतिपद्?—आवुसो! तृष्णा के यह छः आकार (= काया, =समुदाय) हैं—रूप-तृष्णा, शब्द-तृष्णा, गन्ध-तृष्णा, रस-तृष्णा, स्प्रष्टव्य-(= त्वक् का विषय)-तृष्णा, धर्म (= मन के विषय की)-तृष्णा। वेदना (= अनुभव, महसूस-करा)-समुदय (ही) तृष्णा-समुदय है, वेदना-निरोध (ही) तृष्णा-निरोध है। यही ‘आर्य-अष्टांगिक-मार्ग तृष्णा-निरोध गामिनी प्रतिपद् है; जैसे कि ॰1। जब आवुसो! ॰1।”
“ठीक, आवुस! ॰1”
“है, आवुसो! ॰ वेदना को जानता है, ॰ समुदय ॰, व निरोध ॰, ॰ निरोध-गामिनी प्रतिपद् को जानता है। तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है, आवुसो! वेदना, ॰ समुदय, ॰ निरोध, ॰ निरोध गामिनी प्रतिपद्?—आवुसो! वेदना के यह छ आकार हैं—(1) चक्षुः-संस्पर्शजा (= चक्षु के संयोग से उत्पन्न) वेदना (= एह्सास्, अनुभव), (2) श्रोत्र-संस्पर्शजा वेदना, (3) घ्राण-संसपर्शजा वेदना, (4) जिह्वा-संस्पर्शजा वेदना, (5) काय-संस्पर्शजा वेदना, (6) मनः-संस्पर्शजा वेदना। स्पर्श (= इन्द्रिय और विषय का संयोग)-समुदय (से ही) वेदना-समुदय (होता है), स्पर्श-निरोध से वेदना-निरोध होता है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग-वेदना- निरोध गामिनी प्रतिपद् है, जैसे कि ॰1। जब आवुसो ॰1।
“ठीक आवुस! ॰1।”
“है, आवुसो! ॰ स्पर्श (= इन्द्रिय और विषय का संयोग) को जानता है, ॰ समुदय, ॰॰। तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है आवुसो! स्पर्श, ॰ समुदय, ॰ ॰?—आवुसो! स्पर्श के यह प्रकार (या समुदाय) हैं —(1) चक्षुः-संस्पर्श, (2) श्रोत्र-संस्पर्श, (3) घ्राण-संस्पर्श, (4) जिह्वा-सस्पर्श, (5) काय-संस्पर्श, (6) मनः-संस्पर्श। षड्-आयतन (= चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय या त्वक् और मन यह छः इन्द्रियाँ)-समुदय (ही) स्पर्श-समुदय है। षडायतन-निरोध (से) स्पर्श-निरोध (होता है)। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग स्पर्श-निरोध-गामिनी प्रतिपद् है, जैसे कि ॰1। जब आवुसो ॰1।
“ठीक आवुस! ॰1”
“है, आवुसो! ॰ षडायतन को जानता है, ॰ समुदय ॰। ॰ ॰ । तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है आवुसो! षडायतन, ॰ निरोध, ॰ ॰?—आवुसो! यह छ आयतन (= इन्द्रिय) हैं—(1) चक्षुः-आयतन, (2) श्रोत्र-आयतन, (3) घ्राण-आयतन, (4) जिह्वा-आयतन, (5) काय-आयतन, (6) मन-आयतन। नाम-रूप (= विज्ञान और रूप डपदक ंदक उंजजमत)-समुदय, षडायतन-समुदय है, नाम-रूप-निरोध (ही) षडायतन-निरोध है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग ॰1।॰1।
“ठीक आवुस! ॰”
“है, आवुसो! ॰ नाम-रूप को जानता है, ॰ समुदय ॰, ॰ ॰। तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है आवुसो! नाम-रूप, ॰ निरोध, ॰ ॰?—(1) वेदना (= विषय और इन्द्रिय के संयोग से उत्पन्न मन पर प्रथम प्रभाव), (2) संज्ञा (= वेदना के अनंतर की मन की अवस्था), (3) चेतना (= संज्ञा के अनंतर की मन की अवस्था) (4) स्पर्श, मनसिकर (= मन पर संस्कार), —यह आवुसो! नाम हैं। चार महाभूत और चार महाभूतों को लेकर (बने) रूप, आवुसो रूप कहा जाता है। इस प्रकार यह नाम, (और) यह रूप, (दोनों मिलकर) आवुसो! नाम-रूप कहा जाता है। विज्ञान-समुदय नाम-रूप-समुदय है। विज्ञान-निरोध, नाम-रूप-निरोध है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग ॰1। ॰1।
“ठीक आवुस! ॰1”
“है, आवुसो! ॰ विज्ञान को जानता है, ॰ समुदय, ॰ ॰। तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है आवुसो! विज्ञान, ॰ समुदय, ॰ ॰?—आवुसो! यह छ विज्ञान के समुदाय (= काय) हैं—(1) चक्षुः-विज्ञान, (2) श्रोत्र-विज्ञान, (3) घ्राण-विज्ञान, (4) जिह्वा-विज्ञान, (5) काय-विज्ञान, (6) मनो-विज्ञान। संस्कार-समुदय विज्ञान-समुदय है, संस्कार-निरोध विज्ञान-निरोध है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग ॰1। ॰1।
“ठीक आवुस! ॰1”
“है, आवुसो! ॰ संस्कारों को जानता है। ॰ समुदय, ॰ ॰। तब आवुसो! आर्य-श्रावक ॰1। क्या है आवुसो! संस्कार, (= क्रिया, गति) ॰ समुदय, ॰ ॰?—आवुसो! यह तीन संस्कार है—(1) काय-संस्कार, (2) वचन-संस्कार, (3) चित्त-संस्कार-निरोध है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग ॰1। ॰1।
“ठीक आवुस! ॰1”
“है, आवुसो! ॰ अविद्या को जानता है, ॰ समुदय, ॰ ॰। तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है आवुसो अविद्या, ॰ समुदय, ॰ ॰?—आवुसो! जो यह दुःख के विषय में अज्ञान, दुःख समुदय के विषय में अज्ञान, दुःख-निरोध के विषय में अज्ञान, दुःख-निरोध-गामिनी प्रतिपद् के विषय में अज्ञान; इसे आवुसो! अविद्या कहा जाता है। आस्रव-समुदय अविद्या-समुदय है। आस्रव-निरोध अविद्या-निरोध है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग ॰1। ॰1।
“ठीक आवुस! ॰1”
“है, आवुसो! ॰ आस्रव (= चित्तमल) को जातना है, ॰ समुदय ॰ ॰। तब आवुसो! आर्यश्रावक ॰1। क्या है आवुसो! आस्रव, ॰ समुदय ॰ ॰?—आवुसो! यह तीन आस्रव हैं—(1) काम-आस्रव, (2) भव-(= जन्मने का) आस्रव, (3) अविद्या-आस्रव। अविद्या-समुदय आस्रव-समुदय है, अविद्या-निरोध आस्रव-निरोध है। यही आर्य-अष्टांगिक-मार्ग ॰1।
इतने से आवुसो! आर्यश्रावक सम्यग्-दृष्टि होता है, उसकी दृष्अि सीधी (होती है), वह धर्म मे अत्यन्त श्रद्धावान्, (और) इस सद्धर्भ को प्राप्त होता है।”
आयुष्मान् सारिपुत्र यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओं ने आयुष्मान् सारिपुत्र के भाषण का अभिनन्दन किया।