दीध-निकाय
6. महालि-सुत्त (१।६)
भिक्षु बननेका प्रयोजन (सुनक्खत-कथा)—(१) समाधिके चमत्कार नही । (२) निर्वाणका साक्षात्कार । (३) आत्मवाद (मडिस्स-कथा) । (४) निर्वाण साक्षात्कारके उपाय (शील, समाधि, प्रज्ञा) ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् वैशाली मे महावनकी कूटागारशाला मे विहार करते थे ।
उस समय बहुतसे कोसलवासी ब्राह्मण-दूत, मगघवासी ब्राह्मण-दूत, वैशालीमे किसी कामसे वास करते थे । उन कोसल-मगध-वासी ब्राह्मण-दूतोने सुना—शाक्य कुलसे प्रब्रजित शाक्य-पुत्र श्रमण-गौतम वैशालीमे महावनकी कूटागारशालामे विहार करते है । उन आप गौतमका ऐसा मंगल कीर्ति-शब्द फैला हुआ है— ०१ । इस प्रकारके अर्हतोका दर्शन अच्छा होता है ।
तब वह कोसल-मागध-ब्राह्मणदूत जहॉ महावनकी कूटागारशाला थी, वहॉ गये । उस समय आयुष्मान् नागित भगवानके उपस्थाक (=हजूरी) थे । तब वह ब्राह्मण-दूत जहाँ आयुष्मान् नागित थे, वहॉ गये । जाकर आयुष्मान् नागितसे बोले ।—
“हे नागित । इस वक्त आप गौतम कहॉ विहरते है ? हम उन आप गौतमका दर्शन करना चाहते है ।”
“आवुसो । भगवानके दर्शनका यह समय नही है । भगवान् ध्यानमे है ।”
तब वह ० ब्राह्मणदूत वही एक ओर बैठ गये—‘हम उन आप भगवानका दर्शन करके ही जावेगे’ । ओठ्ठद्ध (=आधे ओठवाला) लिच्छविभी, बळी भारी लिच्छवि-परिषद्के साथ, जहॉ आयुष्मान् नागित थे, वहाँ गया । जाकर आयुष्मान् नागितको अभिवादनकर, एक ओर खळा हो गया । एक ओर खळे हुये ओट्ठद्ध लिच्छबिने आयुष्मान् नागितसे कहा—
“भन्ते नागित । इस समय वह भगवान् अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध कहॉ विहार कर रहे है ।”
“महालि । भगवानके दर्शनका यह समय नही है । भगवान् ध्यानमे है ।”
ओट्ठद्ध लिच्छवि भी वही एक ओर बैठ गया—‘उन भगवान् अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्धका दर्शन करके ही जायेगे’ ।
तब सिह श्रमणोदेश जहॉ आयुष्मान् नागित थे, वहॉ आया । आकर आयुष्मान् नागित को अभिवादनकर, एक ओर खळा हो गया । ० यह बोला—
“भन्ते काश्यप । यह बहुतसे ०ब्राह्मण-दूत भगवानके दर्शनके लिये यहॉ आये है । ओट्ठद्ध लिच्छवि भी महती लिच्छवि-परिषद्के साथ भगवानके दर्शनके लिय यहॉ आया है । भन्ते काश्यप । अच्छा हो, यदि यह जनता भगवानका दर्शन पाये ।”
“तो सिंह । तू ही जाकर भगवानसे कह ।”
आयुष्मान् नागित को “अच्छा भन्ते । ” कह, सिह श्रमणोदेश जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक ओर खळा हो ० भगवानसे बोला—
“भन्ते । यह बहुतसे ०, अच्छा हो यदि यह परिषद् भगवानका दर्शन पाये ।”
“तो सिह । विहारकी छायामे आसन बिछा ।”
“अच्छा भन्ते । ” कह, सिह श्रमणोदेशने विहारकी छायामे आसन बिछाया । तब भगवान् विहारसे निकलकर, विहारकी छायामे बिछे आसनपर बैठे।
तब वह ० ब्राह्मण-दूत जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर भगवानके साथ समोदन कर ० । औट्ढद्ध लिच्छवि भी लिच्छवि-परिषद्के साथ, जहॉ भगवान् थे, वहॉ गया । जाकर भगवानको अभिवादनकर एक और बैठ गया । एक और बैठे हुये, औट्ठद्ध लिच्छविने भगवानसे कहा—
१—भिक्षु बननेका प्रयोजन (सुनक्खत्त-कथा)
“पिछले दिनो (=पुरिमानि दिवसानि पुरिमतराणि) सुनक्खत्त लिच्छविपुत्त जहॉ मै था, वहॉ आया । आकर मुझसे बोला—‘महालि । जिसके लिये मै भगवानके पास अन्-अधिक तीन वर्प तक रहा कि प्रिय कमनीय रजनीय दिव्य शब्द सुनूँगा, किन्तु प्रिय कमनीय रजनीय दिव्य शब्द मैने नही सुना ।’ भन्ते । क्या सुनक्खत्त लिच्छवि-पुत्र ने विधमान ही ० दिव्य शब्द नही सुने, या अविधमान ॽ”
“महालि । विधमान ही ० दिव्य शब्दोको सुनक्खत्त० ने नही सुना, अ-विधमानको नही ।”
“भन्ते । क्या हेतु-प्रत्यय हे, जिससे कि ० दिव्य शब्दोको सुनक्खत्त० ने नही सुना ० ॽ”
(1) समाधिके चमत्कार नहीं
“महालि । ऐक भिक्षुको पूर्व दिशामे ० दिव्य रूपोके दर्शनार्थ एकागी समाधि प्राप्त होती है, किन्तु ० दिव्य-शब्दोके श्रवणार्थ नही। वह पूर्व-दिशामे ० दिव्य-रूपको देखता हे, किन्तु ० दिव्य-शब्दोको नही सुनता । सो किस हेतु ॽ महालि । पूर्व-दिशामे एकाश एकागी समाधि प्राप्त होनेसे ०दिव्य रूपोके दर्शनके लिये होती हे ०, दिव्य-शब्दोके श्रवणके लिये नही । और फिर महालि । भिक्षुको दक्षिण-दिशा ०, ० पश्चिम-दिशा, ० उत्तर-दिशा ०, ० ऊपर ०, ० नीचे ० ० तिर्छे रुपोके दर्शनार्थ एकागी समाधि प्राप्त होती है ० । महालि । भिक्षुको पूर्व-दिशामे ० दिव्य शब्दोके श्रवणार्थ ०।० दक्षिण-दिशामे ० । ० पश्चिम-दिशामे ० । ० उत्तर-दिशामे ० महालि । भिक्षुको पूर्व-दिशामे ० दिव्य-रुपोके दर्शनार्थ, और दिव्य-शब्दोके श्रवणार्थ उभयाश (=दो-तरफी) समाधि प्राप्त होती है। वह उभयाश समाधिके प्राप्त होनसे पूर्व-दिशामे ० दिव्य रूपोको देखता हे, ० दिव्य शब्दोको सुनता है । ० ० । ० उतर-दिशामे ० । ० ऊपर ० । ० नीचे ० । ० तिर्छे० ।
“भन्ते । इन समाधि-भावनाओके साक्षात्कार (=अनुभव)के लिये ही, भगवानके पास भिक्षु ब्रह्मचर्य-पालन करते है ॽ”
“नही महालि । इन्ही ० के लिये (नही) ० । महालि । दुसरे इनसे बढकर, तथा अधिक उत्तम धर्म है, जिनके साक्षात्कारके लिये भिक्षु मेरे पास ब्रह्मचर्य-पालन करते है” ।
“भन्ते । कौनसे इनसे बढकर तथा अधिक उत्तम धर्म है, जिनके ० लिये ० ॽ”
(2) निर्वाणा साक्षात्कारके लिये ॽ
“महालि । तीन संयोजनो (=बंधनो) के क्षयसे (पुरूष) फिर न पतित होनेवाला, नियत
संबोधि (=परमज्ञान) की ओर जानेवाला, स्त्रोत-आपत्र होता है । महालि । ० यह भी धर्म है ०।
और फिर महालि । तीनो संयोजनोके क्षीण होनेपर, राग, द्वेष, मोहके निर्बल (=तनु) पळनेपर,
सकृदागामी ‘होता है, एक ही वार (=सकृद् एव) इस लोकमे फिर आ (=जन्म) कर, दुखका अन्त
करता (=निर्वाण-प्राप्त होता) हे । ० यह भी महालि । ० धर्म है ० । और फिर महालि भिक्षु पॉचो अवरभागीय (=ओरभागिय=यही आवागमनमे फॅसा रखनेवाले) सयोजनोके क्षीण होनेसे औपपातिक (=देव) बन वहॉ (=स्वर्ग-लोकमे) निर्वाण पानेवाला =(फिर यहाँ) न लौटकर आनेवाला होता है । ० यह भी महालि । ० धर्म है ० । और फिर महालि । आस्त्रवो (=चित्तमलो) के क्षीण होनेसे, आस्त्रव-रहित चित्तकी मुक्तिके ज्ञानद्वारा इसी जन्ममे (निर्वाणको) स्वय जानकर=साक्षात्कार कर=प्राप्त कर विहार करता है । ० यह भी महालि । धर्म है ०। यह है महालि । ० अधिक उत्तम धर्म, जिनके साक्षात् करनेके लिये, भिक्षु मेरे पास ब्रह्मचर्य-पालन करते है ।”
“क्या भन्ते । इन धर्मोके साक्षात् करनेके लिये मार्ग=प्रतिपद् है ?”
“है, महालि । मार्ग=प्रतिपद् ० ।”
“भन्ते । कौन मार्ग है, कौन प्रतिपद् है ० ।”
“यही आर्य-अष्टागिक मार्ग, जैसे कि-(१) सम्यक्-दृष्टि, (२) सम्यक्-सकल्प, (३) सम्यग्-वचन, (४) सम्यक्-कर्मान्त, (५) सम्यग्-आजीव, (६) सम्यग्-व्यायाम, (७) सम्यक्-स्मृति, (८) सम्यक्-समाधि । महालि। यह मार्ग है, यह प्रतिपद् है, इन धर्मोके साक्षात् करनेके लिये० ।”
(३) (आत्मवाद नहीं) मण्डिस्स कथा
“एक बार महालि । मै कौशाम्बीमे घोषिता राम मे विहार करता था । तब दो प्रब्रजित (=साधु) मडिस्स परिब्राजक, तथा दारूपात्रिक का शिष्य जालिय—जहॉ मै था, वहाँ आये । आकर मेरे साथ समोदन कर एक ओर खळे हो गये । एक ओर खळे हुये उन दोनो प्रब्रजितोने मुझसे कहा—‘आवुस । गौतम । क्या वही जीव है, वही शरीर है, अथवा जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है ? ’ ‘तो आवुसो । सुनो, अच्छी तरह मनमे करो, कहता हूँ ।’ ‘अच्छा आवुस । ’—कह उन दोनो प्रब्रजितोने मुझे उत्तर दिया । तब मैने कहा—
(४) निर्वाण साक्षात्कार के उपाय
१—शील—‘आवुसो । लोकमे तथागत उत्पन्न होता है०१, इस प्रकार आवुसो । भिक्षु शील-सम्पन्न होता है ।
२—समाधि—२प्रथम-ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । आवुसो । जो भिक्षु ऐसा जानता=ऐसा देखता है, उसको क्या यह कहनेकी जरूरत है—‘वही जीव है, वही शरीर है, या जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है’ ? आवुसो। जो भिक्षु ऐसे जानता है, ऐसा देखता है, क्या उसको यह कहनेकी जरुरत है—वही जीव है ० ? मे आवुसो । इसे ऐसा जानता हूँ०, तो भी मै नही कहता—वही जीव है, वही शरीर है, या ०’ । २० व्दितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । ० तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । ०२ चतुर्थ-ध्यानको० प्राप्त हो विहरता है । आवुसो । जो भिक्षु ऐसा जानता=ऐसा देखता हे ० ।
३—प्रज्ञा—“ज्ञान= दर्शन के लिये चित्तको लगाता=झुकाता है ० । आवुसो । जो भिक्षु ऐसा जानता=ऐसा देखता है ० । ०३ और अब यहाँ करनेके लिये नही रहा—जानता है । आवुसो । जो भिक्षु ऐसा जानता=ऐसा देखता है ० । क्या उसको यह कहने की जरूरत है—‘वही जीव है, वही शरीर है, या जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है ?’ आवुसो । जो ० ऐसा देखता है, उसे यह कहनेकी जरूरत नही है—० । मै आवुसो । ऐसे जानता हूँ ० , तो भी मै नही कहता—‘वही जीव है, वही शरीर है, अथवा जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है ।”
भगवानने यह कहा—ओट्ठध्द लिच्छविने सन्तुष्ट हो, भगवानके भाषणको अनुमोदित किया ।