मज्झिम निकाय

12. महासीहनाद-सुत्तन्त

ऐसा मैने सुना—

एक समय भगवान् वैशाली मे अवरपुर-वन-संड में विहार करते थें ।

उस वक्त सुनक्खत्त लिच्छविपुत्त को इस धर्म को छोडकर चले गये थोडा ही समय हुआ था। वह वैशाली में परिषद् में इस प्रकार कहता था-“श्रमण गौतम के पास आर्य-ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठता, उत्तर मनुष्य धर्म (= दिव्य-शक्ति) नहीं है। विमर्ष (= चिन्तन) से सोचे, अपने प्रतिभा से जाने, तर्क से प्राप्त धर्म को (ही) श्रमण गौतम उपदेशता है। जिस (मनुष्य) के लिये धर्म उपदेशता है, वह अपने दुःख-क्षय को प्राप्त होता है।”

तब आयुष्मान् सारिपुत्र पूर्वाह्न समय पहिन कर पात्र-चीवर (= भिक्षापात्र, वस्त्र) ले वैशाली में भिक्षा के लिये प्रविष्ट हुये। आयुष्मान् सारिपुत्र ने सुनक्खत्त (= सुनक्षत्र) लिच्छविपुत्र को वैशाली मे परिषद् के बीच मे यह वचन बोलते सुना-“श्रमण गौतम के पास ॰ (= दिव्य शक्ति) नहीं ॰।

तब आयुष्मान् सारिपुत्र वैशाली में पिडचार करके, भोजन के पश्चात् भिक्षान्न से निवृत्त हो, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर भगवान् को अभिनन्दन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठकर आ.सारिपुत्र ने भगवान् से यह कहा—

“भन्ते! हाल ही में इस धर्म को छोडकर गया हुआ, सुनक्षत्र लिच्छविपुत्र, वैशाली में परिषद् के बीच में यह वचन बोल रहा है—’श्रमण गौतक के पास ॰ (= दिव्य शक्ति) नहीं है॰”

1—“सारिपुत्र! सुनक्खत्त मोघ-पुरूष (= फज़ूल का आदमी) क्रोधी है, क्रोध से ही उसने यह वचन कहा होगा। सारिपुत्र! निन्दा करने के ख्याल से (बोलते हुये) भी सुनक्खत्त मोघपुरूष ने जिसके लिये धर्म उपदेशता है, वह अपने दुःख क्षय को प्राप्त होता है।’ सारिपुत्र! सुनक्खत्त मोघपुरूष का यह भी मुझमें धर्म-सम्बन्ध नहीं—“वह भगवान् अर्हत् ॰ बुद्ध भगवान् हैं।’ सारिपुत्र! सुनक्खत्त मोघपुरूष का यह भी॰ नहीं—’इस प्रकार वह भगवान् अनेक प्रकार की ऋद्धियों का अनुभव करते हैं—एक होकर अनेक हो जाते हैं ॰। काया से ब्रह्मलोक पर्यन्त को अपने वश में कर लेते हैं।’ सारिपुत्र ॰!—’वह भगवान् अमानुष विशुद्ध दिव्य श्रोत्रों से उभय प्रकार के शब्दों को सुनते हैं ॰। सारिपुत्र! ॰—’वह भगवान् दूसरे सत्वों-दूसरे व्यक्तियो के चित्तों को (अपने) चित्त से देखकर जान लेते हैं—॰ अविमुक्त चित्त होने पर ‘अविमुक्त चित्त हैं’—जान लेते हैं।’

2—“सारिपुत्र! तथागत के यह दश तथागत-बल हैं, जिसको प्राप्तकर तथागत उच्च॰ (= आर्षभ) स्थान को पाते हैं, परिषद् में सिंहनाद करते हैं, ब्रह्मचक्र (= धर्मचक्र) को चलाते हैं, कौन से दस?—(1.) सारिपुत्र! तथागत स्थान को स्थान के तौर पर, और अ-स्थान को अ-स्थान के तौर पर, यथार्थतया जानते हैं। जो कि सारिपुत्र! तथागत स्थान को॰ जानते हैं, यह भी तथागत के लिये तथागत-बल है, जिस बल को प्राप्तकर ॰ ब्रह्मचक्र चलाते हैं।

“(2) और फिर सारिपुत्र! तथागत अतीत, भविष्य और वर्तमान के लिये कर्मों के विपाक को स्थान, और हेतुपूर्वक ठीक से जानते हैं ॰। ब्रह्मचक्र चलाते हैं।

“(3) और फिर सारिपुत्र! तथागत सर्वत्रगामिनी प्रतिपद् (= मार्ग, ज्ञान) को ठीक से जानते हैं ॰। ब्रह्म ॰।

“(4) और फिर सारिपुत्र! तथागत अनेक धातु (= ब्रह्मांड) नाना धातु वाले लोकों को ठीक से जानते हैं ॰। ब्रह्म ॰।

“(5) ॰ नाना अधिमुक्ति (= स्वभाव) वाल सत्वों (= प्राणियों) को ठीक से जानते हैं ॰। ॰।

“(6) ॰ दूसरे सत्वों=दूसरे पुद्गलों की इन्द्रियों के परत्व-अपरत्व (= प्रबलता दुर्बलता) को ॰। ॰।

“(7) ॰ ध्यान, विमोक्ष, समाधि, समापत्ति, के संक्लेश (= मल), व्यवदान (= निर्मल-करण), उत्थान , को ॰। ॰।

“(8) ॰ अनेक प्रकार के पूर्व-निवास को याद करते हैं ॰ इस प्रकार आकार और उद्देश्य सहित अनेक प्रकार के पूर्व-निवासो को स्मरण कर सकते हैं ॰।

“(9) ॰ अमानुष विशुद्ध दिव्य-चक्षु से ॰ प्राणियों को उत्पन्न होते मरते ॰ स्वर्गलोक को प्राप्त हुये हैं। ॰

“(1॰) और फिर सारिपुत्र! आस्रवों (= चित्तमलों) के क्षय से आस्रव-रहित चित्त की विमुक्ति (= मुक्ति) प्रज्ञा की विमुक्ति को इसी जन्म मे साक्षात्कार कर प्राप्त कर विहरते हैं। जो कि सारिपुत्र! तथागत आस्रवो के क्षय से ॰ प्राप्त कर विहरते हैं; यह भी तथागत के लिये तथागतबल है, जिस बल को प्राप्त कर तथागत उच्च स्थान को पाते है, (और) परिषद् में सिंहनाद् करते हैं, ब्रह्म-चक्र चलाते हैं।

“सारिपुत्र! तथागत के यह दस तथागत-बल हैं, जिन बलों को प्राप्त कर ॰ ब्रह्म चक्र चलाते हैं।

“सारिपुत्र! ऐसे जाननेवाले, ऐसे देखनेवाले मुझे जो कहे—’श्रमण गौतम के पास ॰ उत्तर-मनुष्य-धर्म नहीं है ॰। तर्क से प्राप्त धर्म को श्रमण गौतम उपदेशता’ है। सारिपुत्र! यदि वह उस वचन को न छोड़े उस चित्त (= ख्याल) को न छोडे, उस दृष्टि को विसर्जित न करे, तो नर्क में डाला जैसा होगा। जैसे सारिपुत्र! शील-सम्पन्न (= सदाचार युक्त), समाधि-सम्पन्न, प्रज्ञा-सम्पन्न, भिक्षु इसी जन्म में आज्ञा (= मोक्ष) को पाये, वैसे ही इस सम्पद् को भी मैं सारिपुत्र! कहता हूँ, कि यदि (वह) उस वचन को न छोड़े ॰ नर्क मे डाला जैसा होगा।

3—“सारिपुत्र! यह चार तथागत के वैशारद्य हैं, जिन वैशारद्यों (= विशारदपन) को प्राप्त कर तथागत ॰ परिषद् में सिंहनाद करते हैं ॰। कौन से चार?—(1) ‘अपने को सम्यक् सम्बुद्ध कहने वाले मैने इन धर्मो (बातों) को नहीं बोध किया, सो उनके विषय में कोई श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, ब्राह्मा या लोक मे कोई (दूसरा) धर्मानुसार पूछ न बैठे’—मैं ऐसा कोई कारण सारिपुत्र! नहीं देखता। सारिपुत्र! ऐसे किसी कारण को न देखते मै क्षेम को प्राप्त हो, अभय को प्राप्त हो, वैशाराद्य को प्राप्त हो, विहरता हूँ। (2) ‘अपने को क्षीणास्रव (= अर्हद्) कहने वाले मेरे यह आस्रव (= चित्त-दोष) क्षीण नहीं हुये, सो उनके विषय में कोई श्रमण ॰ धर्मानुसार पूछ न बैठे’—ऐसा कोई कारण ॰ विहरता हूँ। (3) ‘जो अन्तराय-धर्म (= विघ्नकारी कर्म) कहे गये हैं, उन्हे सेवन करने से वह अन्तराय (= विघ्न) नहीं कर सकते’ ॰ यहाँ उनके विषय मे कोई श्रमण ॰ धर्मानुसार पूछ न बैठे’—ऐसा कोई कारण ॰ विहरता हूँ। (4) ‘जिस मतलब के लिये धर्म उपदेश किया, वह ऐसा करने वाले को भली प्रकार दुख-क्षय की ओर नहीं ले जाता—इसके विषय में कोई श्रमण ॰ धर्मानुसार पूछ न बैठे’—ऐसा कोई कारण सारिपुत्र! नहीं देखता। ॰ विहरता हूँ।

सारिपुत्र! यह चार तथागत के वैशारद्य हैं ॰ जिन वैशारद्यों को प्राप्त कर ॰ तथागत परिषद् सिंहनाद करते हैं, ब्रह्मचक्र चलाते हैं।

“सारिपुत्र! ऐसा जाननेवाले, ऐसा देखने वाले मुझे जो कहे—’श्रमण गौतम ॰ जैसा होगा। जैसे सारिपुत्र! शील सम्पन्न ॰।

4—“सारिपुत्र! यह आठ परिषद् (= सभा) हैं। कौनसी आठ?—(1) क्षत्रिय-परिषद्, (2) ब्राह्मण-परिषद्, (3) गृहपति (= वैश्य)-परिषद्, (4) श्रमण-परिषद्, (5) चातुर्महाराजिक-परिषद्, (6) त्रायस्त्रिश-परिषद्, (7) मार-परिषद्, (8) ब्रह्म-परिषद्। सारिपुत्र! यह आठ परिषद् हैं। सारिपुत्र! इन चार वैशारद्यो को प्राप्तकर तथागत इन आठ परिषदो में जाते हैं, अवगाहन करते हैं। जानता हूँ, सारिपुत्र! मैं अनेकशत क्षत्रिय-परिषदों में जाने को और वहाँ पर भी, पहिले भाषण किये जैसा, पहिले आये जैसा साक्षात्कार (होता है)। सारिपुत्र! ऐसी कोई बात देखने का कारण नहीं पाता, कि वहाँ मुझे भय या घबराहट हो। क्षेम को प्राप्त हो अभय को प्राप्त हो, वैशारद्य को प्राप्त हो, मैं विहार करता हूँ। जानता हूँ सारिपुत्र! मैं अनेक शत ब्राह्मण-परिषदो मे जाने को ॰। ॰ गृहपति-परिषदो में ॰। ॰ श्रमण ॰। ॰ ॰ ब्रह्मा की परिषदों में ॰।

“सारिपुत्र! ऐसा जानने वाले, ऐसा देखने वाले मुझे ॰।

5—“सारिपुत्र! यह चार योनियाँ हैं। कौनसी चार?—(1) अंडज योनि, (2) जरायुज योनि, (3) स्वेदज योनि, (4) औपपातिक योनि। क्या है सारिपुत्र! अंडज-योनि?—सारिपुत्र! जो प्राणी अण्डे के कोश को फोड कर उत्पन्न होते हैं, यह सारिपुत्र! अण्डज-योनि कही जाती है। क्या है सारिपुत्र! जरायुज-योनि?—सारिपुत्र! जो प्राणी वस्तिकोष (= जरायु) को फोढकर उत्पन्न होते हैं ॰। क्या है सारिपुत्र! स्वेदज-योनि?—सारिपुत्र! जो प्राणी सडी मछली मे उत्पन्न होते हैं, सड़े मुर्दे में उत्पन्न होते हैं, सडे़ कुल्माष (= दाल) में ॰, चन्दनिका (गडहे) में, या ओलगिल्ल (= गडही) में उत्पन्न होते हैं ॰। क्या है सारिपुत्र! औपपातिक-योनि?—सारिपुत्र! देवता, नरक के जीव, कोई कोई मनुष्य और कोई कोई विनिपातिक (= नीचे गिरने वाले); यह सारिपुत्र! औपपातिक-योनि कही जाती है।

“सारिपुत्र! ऐसा जानने वाले ॰।

6—“सारिपुत्र! यह पाँच गतियाँ हैं। कौनसी पाँच-(1) नरक, (2) निर्यग् (= पशु पक्षी आदि) योनि, (3) प्रेत्य-विष्ज्ञय (= प्रेत), (4) मनुष्य, (5) देवता। सारिपुत्र! मैं नरक को जानता हूँ, नकरगामी मार्ग को=निरयगामिनी प्रतिपद् को भी जैसे (मार्ग पर) आरूढ हो काया छोडने पर, मरने के अनन्तर (प्राणी) अपाय=दुर्गति=विनिपात नरक में उत्पन्न होते हैं, उसको जानता हूँ। सारिपुत्र! मै निर्यग्-योनि को जानता हूँ निर्यग् योनिगामी मार्ग ॰ उसको जानता हूँ। सारिपुत्र! मै पे्रत्य-विषय को जानता हूँ, पे्रत्य-विषयगामी मार्ग॰ उसको जानता हूँ। सारिपुत्र! मैं मनुष्य को जानता हूँ ॰। ॰। ॰ देवों को जानता हूँ देवलोक गामी मार्ग को=देवलोकगामिनी प्रति पद को भी; जैसे मार्ग पर आरूढ़ हो काया छोड़ने पर मरन के बाद सुगति स्वर्गलोक मे उत्पन्न होते हैं, उसको जानता हूँ। सारिपुत्र! मैं निर्वाण को जानता हूँ, निर्वाणगामी मार्ग को=निर्वाणगामिनी प्रतिपद् को; जैसे मार्ग पर आरूढ़ हो आस्रवों के क्षय, चित्त की विमुक्ति को इसी शरीर में जान कर साक्षात् कर=प्राप्त कर विहरता है; उसे भी जानता हूँ।

(क) “सारिपुत्र! यहाँ मै किसी व्यक्ति (= पुद्गल) को इस प्रकार चित्त से परख करके जानता हूँ, कि यह पुद्गल जैसे मार्ग पर आरूढ़ है, जैसे चाल ढाल रखता है, उस मार्ग पर आरूढ़ हो, काया छोड़ने पर मरने के बाद जैसे अपाय=दुर्गति=विनिपात नरक में उत्पन्न होगा। फिर दूसरे समय अ-मानुष दिव्य विशुद्ध चक्षु से, उसे काया छोड, मरने के बाद ॰ नरक में उत्पन्न हो अत्यन्त दुःखमय, तीव्र कटु वेदना (= यातना) को अनुभव करते देखता हूँ। जैसे कि सारिपुत्र! पुरूष-भर (= पोरिसा) से अधिक ऊँचा लौ-बिना, धूमबिना, अंगारो का ढेर हो। (कोई) धाम (= धूप) में तप्त घाम से पीडित, थका, प्यासा पुरूष एकायन मार्ग से उसी अंगार का ध्यान करके आये। उसको (कोई) आँख वाला पुरूष देखकर यह कहे—’यह पुद्गल जैसे मार्ग पर आरूढ़ है, जैसी चालढाल रखता है, ऐसे मार्ग पर आरूढ़ हो, इन्हीं अगारो में पहूँचेगा’। फिर दूसरे समय उसे अंगारो में गिरकर अत्यन्त दुःख-मय ॰ वेदना को अनुभव करते देखे; ऐसे ही सारिपुत्र! यहाँ किसी व्यक्ति को इस प्रकार चित्त से परख करके जानता हूँ ॰। ॰ अनुभव करते देखता हूँ।

(ख) “सारिपुत्र! यहाँ मै किसी व्यक्ति को इस प्रकार चित्त से परखकर जानता हूँ, यह पुद्गल जैसे मार्ग पर आरूढ़ है ॰ मरने के बाद निर्यग्-योनि में उत्पन्न होगा। फिर दूसरे समय अमानुष ॰ देखता हूँ। जैसे कि सारिपुत्र! पुरूष-भर से अधिक ऊँचा ॰। ॰ अनुभव करते देखता हूँ।

(ग) “सारिपुत्र! यहाँ मै किसी व्यक्ति को इस प्रकार चित्त से परखकर जानता हूँ, ॰ ॰ मरने के बाद प्रेत्यविषय में उत्पन्न हेागा। फिर दूसरे समय अमानुष ॰ दिव्य चक्षु से, उसे काया छोड मरने के बाद प्रेत्य-विषय में उत्पन्न हो दुःखमय तीव्र, कटु वेदना अनुभव करते देखता हूँ। जैसे कि सारिपुत्र! (किसी) विषम (= प्रतिकूल) भूमि में उत्पन्न-पत्र=पलाश के कृश कबरी छाया (= घनी छाया नहीं) वाला वृक्ष हो। तब कोई घाम में तप्त ॰ पुरूष एकायन मार्ग (= एक मात्र मार्ग) से उसी वृक्ष का ख्यााल करके आये। उसको (कोई) आँख वाला पुरूष देखकर यह कहे—यह पुद्गल जैसे मार्ग पर आरूढ़ है, जैसी चाल ढाल रखता है, ऐसे मार्ग पर आरूढ़ हो (यह) इसी वृक्ष के पास आयेगा’। फिर दूसरे समय (उसे) उस वृक्ष की छाया में बैठे या लेटे दुःखमय वेदना अनुभव करते देखे। ऐसे ही सारिपुत्र! यहाँ किसी व्यक्ति को इस प्रकार से चित्त से परखकर जानता हूँ, ॰ ॰ वेदना अनुभव करते देखता हूँ।

(घ) “सारिपुत्र! यहाँ किसी व्यक्ति को इस प्रकार चित्त से परखकर जानता हूँ, ॰ मनुष्यों में उत्पन्न होगा। ॰ अमानुष ॰ दिव्य चक्षु से ॰ उत्पन्न हो बहुत सुखमय वेदना अनुभव करते देखता हूँ। जैसे सारिपुत्र! (किसी) सम (= अनुकूल) भूमि में उत्पन्न बहुत पत्र=पलाशयुक्त घनी छाया वाला वृक्ष हो। तब घाम में तप्त ॰ पुरूष एकायन मार्ग से उसी वृक्ष का ख्याल करके आये ॰। फिर दूसरे समय उस वृक्ष की छाया में बैठे या लेटे बहुत सुखमय वेदना अनुभव करते देखे। ऐसे ही सारिपुत्र! यहाँ किसी व्यक्ति को इस प्रकार चित्त से परखकर जानता हूँ, ॰ ॰ वेदना अनुभव करते देखता हूँ।

(ङ) “सारिपुत्र ॰, ॰ सुगति स्वर्गलोक में उत्पन्न होगा। ॰ अमानुष ॰ दिव्य-चक्षु से ॰ उत्पन्न हो बहुत सुखमय वेदना अनुभव करते देखता हूँ। जैसे सारिपुत्र! एक प्रासाद हो, जिसमें लिपापुता शात (= निवात), कपाटयुकत, जंगलेबन्द कूटागार (= ऊपरी तलका मकान) हो; उसमे बैल के चमड़े के बिछौने वाला, पटिक (= गलीचे) पटलिक बिछौने वाला पलंग हो, जिस पर उत्तरच्छद (ऊपर से ढाँकने की चद्दर) सहित कादलिमृग (= समूरी चर्म) का श्रेष्ठ प्रत्यस्तरण (= लिहाफ) हो, (= सिहराने, पैरहाने) दोनों ओर लाल तकिये हों। तब कोई घाममे तप्त ॰ पुरूष एकायन मार्ग से उसी प्रासाद का ख्याल करके आये। असको कोई आँख वाला पुरूष देखकर यह कहे-’॰ यह इसी प्रासाद के पास आयेगा।’ फिर दूसरे समय (उसे) उसी प्रासाद में, उसी कूटागार में, उसी पलंग पर बैठकर या लेटकर एकान्त सुखमय वेदना को अनुभव करते देखे। ऐसे ही सारिपुत्र! यहाँ किसी व्यक्ति को ॰, ॰ ॰ वेदना को अनुभव करते देखता हूँ।

(च) “सारिपुत्र! ॰, ॰ आस्रवो के क्षय=चित्त की विमुक्ति प्रज्ञा की विमुक्ति को इसी शरीर मे जानकर साक्षात् कर=प्राप्त कर विहरेगा। फिर दूसरे समय उसे आस्रवों के क्षय चित्त की विमुक्ति प्रज्ञा की विमुक्ति को इसी शरीर में जानकर, साक्षात् कर, प्राप्त कर विहरते हुये देखता हूँ, एकान्त सुखमय वेदना को अनुभव करते देखता हूँ। जैसे सारिपुत्र! (कोई) स्वच्छ जल वाली, शीतल जल वाली, सुन्दर जल वाली, सफेद सुन्दर घाट वाली, रमणीय पुष्करिणी हो, उसके तीर पर करीब में वन खण्ड हो। तब कोई घाम में तप्त ॰ पुरूष ॰ उसी पुष्करिणी का ख्याल करके आये। ॰। फिर दूसरे समय उसे उस पुष्करिणी में प्रविष्ट हो स्नानकर, पानकर, सारी पीडा-थकावटो को दूर कर, निकल कर, उसी वन खण्ड में बैठे या लेटे नितान्त सुखमय वेदना को अनुभव करते देखे। ऐसे ही सारिपुत्र। ॰ ॰।

“सारिपुत्र! ऐसा जानने वाले ॰।

7—“सारिपुत्र! मैं चतुरंग (= चार अंगो) से युक्त ब्रह्मचर्य का पालन करना जानता हूँ- (1) तपस्वियो मे मैं परम तपस्वी होता था; (2) रूक्षाचारियों में मैं परम रूक्षाचारी (= लखू) होता था; (3) जुगुप्सुओं में मैं परम जुगुप्सु (= अनुकम्पा रखने वाला) होता था; (4) प्रविविक्तों (= एकान्त सेवियो, विवेककर्ताओ) में मैं परम विविक्त था।

(1) वहाँ सारिपुत्र! मेरी यह तपस्विता (= तपश्चर्या) थी—मैं अ-चेलक (= नग्न) था, मुक्ताचार (= सरभग), हस्ताऽपलेखन (= हाथ-चट्टा), नएहिभादन्तिक (= बुलाई भिक्षा का त्यागी), न-तिष्ठ-भदन्तिक (= ठहरिये कह, दी गई भिक्षा का त्यागी) था; न अभिहट (= अपने लिये की गई भिक्षा) को, न (अपने) उद्देश्य से किये गये को (और) न निमंत्रण को खाता था; न कृम्भी (= घड़े) के मुख से ग्रहण करता था, न खलोपी (= पथरी) के मुख से ॰, न (दो) पटरों के बीच से ॰, न (दो) दंडों के बीच से ॰, न मुसलो के बीच से ॰, न दो भोजन करने वालाको (॰) न गर्भिणी का (॰), न (दूध) पिलाती का (॰), न अन्य पुरूष के पास गई का (॰) न संकित्ती (= चंदा वाले) में (॰), (वहाँ से) जहाँ (कि) कुत्ता खड़ा हो; न (वहाँ) जहाँ (कि) मक्खी भनभना रही हो; न मछली, न मांस, न सुरा (= अर्क उतारी शराब), न मेरय (= कच्ची शराब), न तुपोदक (= चावल की शराब?) पीता था; सो मै एकागारिक (= एक ही घर में भिक्षा करने वाला) होता था; या एक कवल (भर) खाने वाला होता था; या द्वि-आगारिक दो (बार) आहार करने वाला होता था; या दो कवल खाने वाला होता था, (॰) सप्त-आगारिक (= सात घरो से भिक्षा लेने वाला) होता था, या सात कवल खाने वाला; एक कलछी (= दत्ती) भर भोजन से भी गुजारा करता था; दो कलछी ॰; (॰); सात कलछी ॰; एकाहिक (= एक दिन में एक बार) आहार करता था; द्वयाहिक (= दो दिन में एक बार) आहार करता था; सप्ताहिक आहार करता था; इस प्रकार अर्धमासिक बारी बारी से भोजन ग्रहण करता विहरता था; शाकाहारी था, सँवाभोजी भी था; नीवार (= तिन्नी) भक्षी भी था; दद्दुल (= कोदो?) भीक्षी था, कट (= एक तृण) भक्षी था; कण (= खेत में छुटे हुये अनाज के दानों का) भक्षी था; आचाम (= माँड)-भक्षी था; पिण्याक (= खली)-भक्षी था; तृण-भक्षी था; गोबर-भक्षी था; वनमूल फलाहार से गुजारा करता था, (जमीन पर) गिरे फलो का खाने वाला था; सन के वस्त्र धारण करता था, श्मशान (-वस्त्र) भी धारण करता था; मुर्दे के कपडे को धारता था; पांसुकूल (= फेके कपड़े) भी धारता था; तिरीट (= एक छाल) भी धारता था; अजिन (= मृगचर्म) भी धारता था; अजिनक्षिप (= मृगचर्म खंड) भी धारता था; कुशचीर को भी धारता था, वल्कल चीर भी धारता था; (काष्ठ-) फलक-चीर भी धारता था, केश-कम्बल भी ॰; बाल-कम्बल भी ॰; उलूक-पक्ष को भी ॰; केश-दाढ़ी नोचने वाला था, केश-दाढ़ी नोचने के व्यापार में लग्न होते उब्बवट्ठिक (= ठढ़ेसरी) भी था; आसन-त्यागी बन उकडूँ बैठने वाला भी था; उकडूँ बैठने के व्यापार में लग्न हो काँटे पर सोने वाला भी था; कंटक के प्रश्रय (= खाट) पर शय्या करता था, शाम को जल शयन के व्यापार में लग्न होता था।—ऐसे अनेक प्रकार से काया के आतापन सन्तापन के व्यापार में लग्न हो विहरता था, सारिपुत्र! यह मेरी तपस्विता (= तपश्चर्या) थी।

(2) “वहाँ सारिपुत्र! यह मेरा रूक्षाचार था।—पपडी पड़े अनेक वर्ष के मैल को शरीर में संचित किये रहता था; सारिपुत्र! जैसे पपडी पढ़ा अनेक वर्षों का तिन्दुका काष्ट हो, इसी प्रकार सारिपुत्र! पपडी पड़े ॰। वैसा होते (भी) मुझे यह न होता था—अहोवत! इस अपने मैल को अपने हाथ से परिमार्जित करूँ, या दूसरे मेरे इस मैल को (अपने) हाथ से परिमार्जित करें—मुझसे यह भी सारिपुत्र! न होता था। यह सारिपुत्र! मेरा रूक्षाचार था।

(3) “वहाँ सारिपुत्र! यह मेरी जुगुप्सा (= अनुकम्पा) थी;—मै सारिपुत्र! (प्राणियों की) याद करते जाता था, याद करते आता था; जल के बिन्दु तक में मुझे दया बनी रहती थी—विषम (स्थानों में) स्थित क्षुद्र प्राणियों को कहीं मार न दूँ। यह सारिपुत्र! मेरी अनुकम्पा थी।

(4) “वहाँ, सारिपुत्र! यह मेरा प्रविवेक (= एकान्त सेवन) था। मैं सारिपुत्र! किसी अरण्य-स्थान में प्रवेश कर विहरता था। जब मैं (किसी) गोपालक (= ग्वाले) को या पशु-पालक, को या तृणहारक (= घसियारे) को, या काष्टहारक (= लकडहारे) को, या वनकर्मिक (= वन में काम करने वाले) को देखता; तो (एक) वन से (दूसरे) वन में, गहन से गहन को, निम्न (= खड्ड) से निम्न को, स्थल से (दूसरे) स्थल को, चला जाता था। सो किस कारण?—’वह मुझे न देखें, और मैं उन्हे न देखूँ’। जैसे सारिपुत्र! आरण्यक भृग मनुष्य को देखकर बन से बन को ॰ चला जाता है; ऐसे ही सारिपुत्र! जब मैं (किसी) गोपालक को ॰। यह सारिपुत्र! मेरा प्रविवेक था।

“सो मैं सारिपुत्र! छिपकर (= चतुर्गुण्ठित) उन गोष्ठों में जाता था, जिससे गायें और गोपाल चले गये होते। जाकर जो वह तरूण (= बहुत छोटे) दूध पीने वाले बछडों के गोबर होते उन्हे खाता; यहाँ तक कि सारिपुत्र! मुझे अपना ही मूत्र-करीष (= मल) भी त्याज्य न होता; अपने ही मूत्र-करीष का आहार करता। यह सारिपुत्र! मेरा विकट भोजन था।

“सो मैं सारिपुत्र! एक भीषण वन-खण्ड में प्रवेश कर विहरता था। सारिपुत्र! उस भीषण वन-खण्ड की भीषणता यह थी; कि जो कोई अ-वीतराग (पुरूष) उस वन-खण्ड में प्रवेश करता, (उसके) रोम बहुत अधिक खड़े हो जाते थे। सो मैं सारिपुत्र! हेमन्त की हिमपात समय वाली अन्तराष्टक रातों में रात भर चैड़े में विहरता था, (और) दिन को वनखण्ड में। ग्रीष्म के अन्तिम मास में दिन को चैड़े में विहरता और रात को वनखण्ड में। (उस समय) सारिपुत्र! अश्रुत पूर्व यह अद्भूत गाथा मुझे प्रतिभासित हुई—

“अकेला भीषण बन में (ग्रीष्म)-तप्त
(और) शीत-पीडित वह नग्न आग के-पास-न-बैठा,
एषणा (= इच्छाओं) से दूर मुनि।’

“सो मैं सारिपुत्र! मुर्दे की हड्डियों का सिरहाना बना श्मशान में शयन करता था। (उस समय) सारिपुत्र! गोमण्डल (= चरवाहे) पास आकर (मेरे ऊपर) थूकते भी थे, मुतते भी थे, धूल भी फेंकते थे, कर्ण-छिद्रों में सींक भी करते थे, (तो भी) सारिपुत्र! उनके विषय में मुझे कोई बुरा भाव उत्पन्न होता नहीं मालूम होता। यह सारिपुत्र! मेरा उपेक्षा-विहार था।

8—“सारिपुत्र! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण ‘आहार से शुद्धि होती है’—इस बाद (= मत) वाले इस प्रकार की दृष्टिवाले होते है। ‘मैं बेर से गुजारा करूँगा’—कह, वह बेर को खाते हैं, बेरचूर्ण खाते है, बेर के शर्बत को पीते हैं; अनेक प्रेकार के बेर से बने भोजन को खाते हैं। (एक समय) मैं भी सारिपुत्र! एक बेर के बराबर आहार को ही जानता था। शायद सारिपुत्र! तुम्हारे मन में हो—’उस समय बेर बडा होता होगा’। सारिपुत्र! ऐसा नहीं ख्याल करना चाहिये। उस समय भी बेर इतना ही बडा होता था, जितना कि आजकल। सो सारिपुत्र! एक बेर (भर) आहार करने से मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गयां उस अल्पाहारता से वैसे मेरे अंग प्रत्यंग हो गये थे, जैसे आसीतिक (= अस्सी वर्ष के बूढ़े) के पोर (= पर्व) या काल (= वृक्ष) के पर्व। ॰ जैसे ऊँट का पाँव, वैसे मेरे कूल्हे हो गये थे, । ॰ जैसे वद्दनावली (= रस्सी की ऐंठन) वैसे ही उन्नत-अवनत मेरे पीठ की (हड्डी वाले) काँटे हो गये थे। ॰ जैसे पुरानी शाला में कडियाँ अवलग्न-विलग्न (= खिसकी) होती हैं, वैसे ही मेरी पसलियाँ हो गई। ॰ जैसे गहरे कूयें (= उदपान) में (कूयें की) गहराई के कारण आक्कायिक (= तारे) दिखाई पडते हैं, वैसे ही अक्षि-कूपों (= आँख के गढहों) में नीचे धँस जाने के कारण आँख की पुतलियाँ दिखाई पड़ती थीं। ॰ जैसे सारिपुत्र! कच्चा ही तोडा कडवा अलाबू (= लौका) धूप हवा से सम्पुटित (= चिचुक) हो जाता है, मुर्झा जाता है, ऐसे ही मेरे शिरका चमड़ा हो गया था। ॰ जब मैं सारिपुत्र! पेट के चमड़े को पकडता तो पीठ के कांटे को ही पकड़ लेता था; पृष्ठकंटकों को पकड़ते वक्त पेट के चमड़े को ही पकड़ लेता था। मेरे पेट का चमडा सारिपुत्र! पृष्ठ-कंटक से सट गया था। ॰ सो मैं सारिपुत्र! मल-मूत्र परित्याग करने के लिये उठना चाहता था, तो वहीं भहराकर गिर जाता था। ॰ उसी अल्पाहारता के कारण सो मैं सारिपुत्र! उस शरीर को सहारा देते गात्र को (जब) हाथ से सहराता तो सडी जडवाले लोभ शरीर से उखड पडते थे।

“सारिपुत्र! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण, ‘आहार से शुद्धि होती है’—इस तरह के वादवाले, इस तरह की दृष्टिवाले होते हैं। ‘मूँग पर गुजारा करूँगा ॰। ‘तिल से गुजारा करूँगा’—॰। तंडुल से गुजारा करूँगा’—कह, वह तंडुल खाते हैं, तण्डुल चूर्ण खाते हैं, तण्डुल का पानी पीते हैं, ॰ तण्डुल से बने अनेक प्रकार के आहार को खाते हैं। मैं भी सारिपुत्र! (एक समय) तण्डुल बराबर आहार को ही जानता था। शायद सारिपुत्र! ॰ लोभ शरीर से उखड़ पड़ते थे।

“सारिपुत्र! उस ईर्या (= आचार) से भी, उस दुष्कर-कारिका (= तपस्या) से भी मैं उत्तर-मनुष्य-धर्म (= दिव्य-शक्ति) अलमार्य-ज्ञान-दर्शन (= उत्तम ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठा) को नहीं पा सका। सो किस हेतु?—इसी आर्य-प्रज्ञा (= उत्तम ज्ञान) के न पाने से, जो यह आर्य प्रज्ञा किसे, मिलने पर, वैसा करने वाले को अच्छी प्रकार दुःख-क्षय की ओर ले जाती है।

9–7 “सारिपुत्र! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण—’संसार के (= जन्म मरण) से शुद्धि होती है’—इस तरह के वादवाले इस तरह की दृष्टि वाले होते हैं। (किन्तु) सारिपुत्र! ऐसा संसार सुलभ नहीं है, जिसमें इस दीर्घ काल में मैने वास न किया हो; सिवाय शुद्धावास देवताओं के; यदि शुद्धावास देवताओं में मैं संसरण करता, तो सारिपुत्र! मैं इस लोक में न आता।

1॰—“सारिपुत्र! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण—’उत्पत्ति से शुद्धि होती है’—॰ दृष्टिवाले होते हैं ॰ न आता।

11—“॰—“यज्ञ से शुद्धि होती है’— ॰ दृष्टिवाले होते हैं। किन्तु सारिपुत्र! ऐसा यज्ञ सुलभ नहीं, जिसे कि मैंने इस दीर्घ काल में न किया हो; और उसे (दूसरे) मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा ने या महाशाल (= महाधनी) ब्राह्मण ने किया हो।

13—“॰’—अग्निपरिचर्या (= हवन) से शुद्धि होती है’—॰।

14—“॰—’जब तक यह पुरूष दहर (= तरूण) युवा बहुत ही काले केशों वाला प्रथम वयस सुन्दर यौवन से युक्त होता है; तब (यह) परम प्रज्ञा (और) नैपुण्य से युक्त होता है। जब यह पुरूष जीर्ण=बृद्ध=महल्लक=अध्वगत=वयःप्राप्त जन्म से 8॰, 9॰ या सौ वर्ष का हो जाता है; तो उस प्रज्ञा (और) नैपुण्य से च्युत होता है। लेकिन सारिपुत्र! इसे इस तरह नहीं देखना (= मानना) चाहिये। मैं सारिपुत्र! इस समय जीर्ण=बृद्ध ॰ वयःप्राप्त, मेरी आयु 8॰ को पहुँच गई है; यहाँ सारिपुत्र! मेरे चार श्रावक (= शिष्य) शतवर्ष आयुवाले=वर्ष-शत-जीवी, (जो कि) परम गति, स्मृति, मति, धृति से युक्त, तथा परम प्रज्ञा=नैपुण्य (= वैयक्त्य) से समन्वित हैं। जैसे सारिपुत्र! शिक्षित=कृतहस्त=कृत-उपासन, बलवान् धनुग्र्राही शीघ्र, बिना श्रम (वाण) फेंक तिर्छी ताल-छाया का अतिक्रमण=अतिपात न कर दे; ऐसे ही सारिपुत्र! ॰ मति, स्मृति, धृति से युक्त ॰, इस प्रकार परम प्रज्ञा=नैपुण्य से युक्त हैं। (यदि वह) चारों स्मृतिप्रस्थानों को लेकर (मुझसे) प्रश्न पूछे। पूछने पर मैं उनका उत्तर दूँ। मेरे उत्तर को वह धारण करें। फिर दूसरी बार आगे पूछें; सारिपुत्र! अशन—पान—खादन—शयन (के समय) को छोड़, मल-मूत्र-त्याग (के समय) को छोड़, निद्रा-थकावट के दूर करने के समय को छोड तथागत की धर्मदेशना अखंड ही रहेगी, सारिपुत्र! तथागत का धर्मपद-व्याख्यान अखंड ही रहेगा तथागत का प्रश्नोत्तर ॰। फिर वह मेरे शतवर्प आयुवाले॰ चार श्राकव सौ वर्ष के अनन्तर मृत्यु के प्राप्त होवें; (तो भी) सारिपुत्र! किसी तरह मुझे निग्रह नहीं कर सकते, तथागत की प्रज्ञा=नैपुण्य में फरक नहीं आसकता।

“सारिपुत्र! ठीक कहते हुये यह कहे—’सम्मोह धर्म से रहित (एक) सत्व (= व्यक्ति) लोक में बहुजनों के हितार्थ, बहुजनो के सुखार्थ, लोक पर अनुकम्पार्थ, देव-मनुष्यों के अर्थ, हित और सुख के लिये उत्पन्न हुआ है’ (तो) वह ठीक से कहते हुये मेरे ही लिये कहे—सम्मोह धर्म से रहित ॰ ॰ उत्पन्न हुआ है।”

उस समय आयुष्मान् नागसमाल भगवान् की पीठ की ओर खड़े होकर भगवान् को पंखा झल रहे थे। तब आयुष्मान् नागसमाल ने भगवान् को यह कहा—“आश्चर्य भन्ते! अद्भुत भन्ते!! भन्ते! इस धर्मपर्याय (= धर्मोपदेश) को सुनकर रोमांच हो गया। भन्ते! इस धर्मपर्याय का नाम क्या है?”

“तो नागसमाल! तू इस धर्मपर्याय को लोमहर्षण……….।”

भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो आयुष्मान् नामसमाल ने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।