मज्झिम निकाय
53. सेख-सुत्तन्त
एक समय भगवान् शाक्य (देश) में कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार करते थे।
उस समय कपिलवस्तु के शाक्यों ने अभी ही अभी एक नया संस्थागार (= गण-संस्था का आगार) बनवाया था; श्रमण ब्राह्मण या किसी मनुष्य-भूत द्वारा जिसका अभी उपयोग न हीं हुआ था। तब कपिलवस्तु के शाक्य जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये, जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठ कपिलवस्तु के शाक्यो ने भगवान् से यह कहा—
“भन्ते! यहाँ (हम) कपिलवस्तु के शाक्यों ने अभी ही अभी एक नया संस्थागार बनवाया है ॰। उसका भन्ते! भगवान् पहिले उपभोग करें। भगवान् के पहिले परिभोग कर लेने के बाद कपिलवस्तु के शाक्य उसका परिभोग करेंगे। यह कपिलवस्तु के शाक्यों को चिरकाल तक के हित सुख के लिये होगा।”
भगवान् ने मौन से स्वीकार किया। तब कपिलवस्तु के शाक्य भगवान् की स्वीकृति को जानकर, आसन से उठ भगवान् को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर, यहाँ संस्थागार था, वहाँ गये। जाकर संस्थागार में सब ओर फर्श बिछा, आसनों को स्थापित कर, पानी के मटके रख, तेल के प्रदीप आरोपित कर; जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये; जाकर भगवान् को अभिवादन कर ॰ एक ओर खडे़ हो बोले—
“भन्ते! संस्थागार सब ओर से बिछा हुआ है, आसन स्थापित किये हुये हैं; पानी के मटके रक्खे हुये हैं, तेल-प्रदीप आरोपित किय हैं। भन्ते! अब भगवान् जिसका काल समझें (वैसा) करें।”
तब भगवान् पहिन कर पात्र-चीवर ले, भिक्षुसंघ के साथ जहाँ संस्थागार था, वहाँ गये। जाकर पैर पखार, संस्थागार में प्रवेश कर, पूर्व की ओर मुँह कर बैठे; भिक्षु संघ भी पैर पखार ॰ पच्छिम की भीत के सहारे भगवान् को आगे कर बैठा। कपिलवस्तु वाले शाक्य भी पैर पखार, संस्थागार में प्रवेश कर पच्छिम की ओर मुँह कर पूर्व की भीत के सहारे भगवान् को सन्मुख रख कर बैठे। तब भगवान् ने कपिलवस्तु के शाक्यों को बहुत रात तक धार्मिक कथा से संदर्शित=समादपित, सुमुत्तेजित, संप्रशंसित कर आयुष्मान् आनन्द को संबोधित किया—
“आनन्द! अब कपिलवस्तु के शाक्यों को बाकी उपदेश तू कर; मेरी पीठ अगिया रही है; सो मैं लेटूँगा।”
“अच्छा, भन्ते!”—(कह) आयुष्मान् आनंद ने भगवान् को उत्तर दिया।
तब भगवान् ने चैपेती संघाटी (= भिक्षु की ऊपरी दोहरी चद्दर) बिछव, दाहिनी करवट के बल, पैर पर पैर रख, स्मृति-संप्रजन्य के हाथ, उत्थान की संज्ञा (= ख्याल) मन में कर सिंह-शय्या लगाई।
तब आयुष्मान् आनन्द ने महानाम शाक्लय को संबोधित किया—
“महानाम! (जब) आर्य श्रावक शील (= सदाचार) से युक्त, इन्द्रिय में संयत (= गुप्तद्वार), भोजन में मात्रा को जानने वाला, जागरण में तत्पर, सात सद्धर्मो के साहित, इसी जन्म में सुख से विहार के उपयोगी चारों चेतसिक ध्यानों का पूर्णतया लाभी (= पाने वाला), बिना कठिनाई के लाभी=(अ-कृच्छ-लाभी) होता है।
“महानाम! कैसे आर्यश्रावक शील-संपन्न होता है?—जब महानाम! आर्यश्रावक शीलवान् (= सदाचारी) होता है। प्रातिमोक्ष (= भिक्षुनियम)-संवर (= रक्षा) से सवृत (= रक्षित) हो विहरता है। आचार-गोचर-संपन्न (हो) अणुमात्र दोषों में भी भय देखने वाला (होता है)। शिक्षापदों (= सदाचार-नियमों) को स्वीकार कर (उनका) अभ्यास करता है। इस प्रकार महानाम! आर्यश्रावक शील-सम्पन्न होता है।
“महानाम! कैसे आर्यश्रावक इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है?—जब महानाम! आर्यश्रावक चक्षु (= आँख) से रूप को देख कर न निमित्त (= आकार, लिंग) का ग्रहण करने वाला होता है, न अनुव्यंजन (= लक्षण) का ग्रहण करने वाला होता है। जिस विषय में चक्षु-इन्द्रिय के अ-संवृत (= अ-रक्षित) हो विहरने पर अभिध्या (= लोभ), दौर्मनस्य (रूपी) पाप=बुराइयाँ आ घुसती हैं; उसके संवर (= रक्षा) में तत्पर होता है, चक्षु-इन्द्रिय की रक्षा करता है=चक्षु-इन्द्रिय में सवरयुक्त होता है। श्रोत्र से शब्द सुन कर ॰। घ्राण से गंध सूंघ कर ॰। जिह्वा से रस चख कर ॰। काया से स्प्रष्टव्य (विषय) को स्पर्श कर ॰। मन से धर्म को जान कर ॰ मन-इन्द्रिय में संवरयुक्त होता है; इस प्रकार महानाम! आर्यश्रावक इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है।
“कैसे महानाम! आर्यश्रावक भोजन में मात्रा का जानने वाला होता है?—महानाम! भिक्षु ठीक से जानकर आहार ग्रहण करता है, क्रीडा, मद, मंडन-विभूषण के लिये न करके (उतना ही आहार सेवन करता है) जितना कि शरीर की स्थिति के लिये (आवश्यक) है, (भूख के) प्रकोप के शमन करने तथा ब्रह्मचर्य में सहायता के लिये (आवश्यक है)। (यह सोचते हुये, कि) पुरानी (कर्म-विपाक रूपी) वेदनाओं (= पीडाओं) को स्वीकार करूँगा; नई वेदनाओं के उत्पन्न होने की (नौबत) न आने दूँगा; मेरी शरीर यात्रा निर्दोष होगी, और विहार निद्र्वन्द्व होगा। इस प्रकार महानाम! आर्यश्रावक भोजन से मात्राज्ञ होता है।
“कैसे महानाम! आर्यश्रावक जागरण में तत्पर होता है?—महानाम! भिक्षु दिन में टहलने बैठने ॰ या (अन्य) आचरणीय धर्मों से चित्त को शुद्ध करता है। इस प्रकार ॰।
“कैसे महानाम! आर्यश्रावक सात सद्धर्मों से युक्त होता है?—महानाम! भिक्षु (1) श्रद्धालु होता है—तथागत की बोधि (= परमज्ञान) में श्रद्धा करता है—‘वह भगवान् अर्हत् ॰’ देव-मनुष्यों के शास्ता बुद्ध भगवान् हैं। (2) ह्रीमान् (= लज्जाशील) होता है—कायिक, वाचिक, मानसिक दुराचारों से लज्जित होता है, पापों=बुराइयों के आचरण से लज्जित होता है। (3) अपत्रपी (= संकोची) होता है—॰ पापो=बुराइयों के आचरण से संकोच करता है। (4) बहुश्रुत श्रुत-धर=श्रुत-संचयी होता है—जो वह धर्म आदि-कल्याण, मध्य-कल्याण, पर्यवसान-कल्याण, सार्थक=स-व्यंजन हैं, (जो) केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को बखानते हैं, वैसे धर्म (= उपदेश) उसके बहुत सुने, वचन से धारित, परिचित, मन से चिन्तित, दृष्टि (= दर्शन, ज्ञान) से अवगाहित (= प्रतिबिद्ध) होते है। (5) आरव्धवीर्य (= उद्योगी) होता है—बुराइयों (= अकुशल-धर्मो) के छोडने में, और भलाइयों के ग्रहण करने में, स्थिर दृढ़-पराक्रमी होता है। भलाइयों में स्थिर, अ-निक्षिप्त-धुर (= जुआ न उतार फेंकने वाला) होता है। (6) स्मृतिवान् होता है—परम परिपक्व स्मृति (= याद) से युक्त होता है। चिरकाल के लिये और कहे का स्मरण करने वाला, अनुस्मरण करने वाला होता है। (7) प्रज्ञावान् होता है—उत्पत्ति-विनाश को प्राप्त होने वाली, अच्छी तरह दुःख के क्षय की ओर ले जाने वाली आर्य निर्बेधिक (= वस्तु के तह तक पहूँचने वाली) प्रज्ञा से युक्त होता है। इस प्रकार महानाम! ॰।
“कैसे महानाम! आर्यश्रावक इसी जन्म में सुख-विहार के उपयोगी चारों चेतसिक ध्यानों का पूर्णतया लाभी, बिना कठिनाई के लाभी, अकृच्छ-लाभी होता है?—महानाम! आर्यश्रावक कामों से विरहित ॰ प्रथम-ध्यान को ॰। ॰ द्वितीय-ध्यान को ॰। ॰ तृतीय-ध्यान को ॰। ॰ चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। इस प्रकार महानान! ॰।
“जब महानाम! आर्यश्रावक इस प्रकार शील-सम्पन्न होता है, इस प्रकार इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है, इस प्रकार भोजन से मात्राज्ञ होता है, इस प्रकार जागरण मे तत्पर (= अनुयुक्त) होता है, इस प्रकार सात सद्धर्मों से समन्वित होता है, इस प्रकार ॰ चारों चेतसिक ध्यानों का पूर्णतया लाभी ॰ होता है। महानाम! यह आर्यश्रावक शैक्ष्य (= निर्वाण प्राप्ति के लिये जिसे अभी कुछ करना है) प्रातिपद (= मार्गारूढ) कहा जाता है। (वह) न-सडे-अंडे (की भाँति) (पुरूष) निर्भेद (= तह तक पहुँचने) के योग्य है, संबोध (= परमज्ञान) के योग्य है, अनुपम योग-क्षेम (= निर्वाण) की प्राप्ति के योग्य है।
“जैसे महानाम! आठ, दस या बारह मुर्गी के अंडे हो ॰ तो भी वह चूजे पाद-नख से या मुख-तुंड से अंडे को फोडकर स्वस्तिपूर्वक निकल आने के योग्य हैं; ऐसे ही महानाम! जब आर्यश्रावक इस प्रकार शील-सम्पन होता है ॰, तो महानाम! यह आर्यश्रावक शैक्ष्य ॰ कहा जाता है, ॰ (वह) अनुपम योग-क्षेम की प्राप्ति के योग्य है।
“महानाम! वह आर्यश्रावक इसी अनुपम स्मृति की परिशुद्धि (करनेवाली) उपेक्षा द्वारा अनेक प्रकार के पूर्व निवासों (= पूर्व जन्मों) को स्मरण करने लगता है ॰ इस प्रकार आकार और उद्देश्य सहित अनेक प्रकार के पूर्व निवासों को स्मरण करने लगता है। यह महानाम! मुर्गी के चूजें का अण्डे के कोश से पहिला फुटना होता है।
“महानाम! फिर वह आर्यश्रावक इसी ॰ उपेक्षा द्वारा अ-मानुष विशुद्ध दिव्य, चक्षु से ॰ कर्मानुसार गति को प्राप्त होते प्राणियों को पहिचानता है। यह महानाम! ॰ दूसरा फूटना है।
“महानाम! फिर वह आर्यश्रावक इसी ॰ उपेक्षा द्वारा आस्रवों के क्षय से आस्रव-रहित चित्त-विमुक्ति (= मुक्ति) प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी जन्म में जानकर साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहरता है। यह महानाम! ॰ तीसरा फूटना है।
“महानाम! जो कि आर्यश्रावक शील-सम्पन्न होता है, यह भी उसके चरण (= पद या आचरण) में है। जो कि महानाम! आर्यश्रावक इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है, यह भी उसके चरण में है। ॰ भोजन में मात्राज्ञ ॰। ॰ जागरण में अनुयुक्त ॰। ॰ सात सद्धर्मों से संयुक्त ॰। ॰ चार आभिचेतसिक (= शुद्ध चित्त वाले) ध्यानों का पूर्णतया लाभी ॰।
“महानाम! जो कि आर्यश्रावक अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को जानता है ॰। यह भी उसकी विद्या में है। ॰ विशुद्ध दिव्य-चक्षु ॰। ॰ आस्रवों के क्षय ॰।
“महानाम! ऐसे आर्यश्रावक विद्या-सम्पन्न कहा जाता है; इस प्रकार चरण-सम्पन्न (कहा जाता है)। इस प्रकार विद्या-चरण-सम्पन्न (होता है)।
“महानाम! सनत्कुमार ब्रह्मा ने भी यह गाथा कही है—
‘गोत्र का ख्याल करने वाले लोगो में जन्म से क्षत्रिय श्रेष्ठ है।
जो विद्या-चरण-सम्पन्न है, वह देव-मनुष्यों में (सबसे) श्रेष्ठ है।।’
“महानाम! सनत्कुमार ब्रह्मा की गाई यह गाथा सु-गीता (= उचित कथन) है, दुर्गीता नहीं, सुभाषिता है, दुर्भाषिता नहीं; अर्थ-युक्त है अन्-अर्थ-युक्त नहीं; भगवान् द्वारा भी (यह) अनुमत है।”
तब भगवान् ने उठकर आयुष्मान् आनन्द को संबोधित किया—
“साधु, साधु (= शाबाश), आनन्द! तूने कपिलवस्तु के शाक्यों के लिये शैक्ष्य मार्ग का अच्छी तरह व्याख्यान किया।”
आयुष्मान् आनन्द ने यह कहा, शास्ता (= युद्ध) उससे सहमत हुये। कपिलवस्तु के शाक्यों ने आयुष्मान् आनन्द के भाषण को अभिनंदित किया।