दीध-निकाय
9. पोट्ठपाद-सुत (१।६)
१—व्यर्यकी कथायें । २—संज्ञा निरोघ संप्रज्ञात समापति शिक्षासे—(१) शील; (२) समाघि । ३—संज्ञा और आत्मा— (१) अव्याकृत वस्तुयें, ; (२) आत्मवाद; (३) तीन प्रकारके शरीर; (४) वर्तमान शरीर ही सत्य ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् श्रावस्तीमें अनाथ पिंडिकके आराम जेतवनमे विहार करते थे ।
१—व्यर्थकी कथायें
तब भगवान् पूर्वाह्ह समय पहिनकर पात्र-चीवर ले, श्रावस्तीमे भिक्षाके लिये प्रविप्ट हुए । तब भगवानको यह हुआ—‘श्रावस्तीमे भिक्षाटनके लिये बहुत सबेरा है, कयो न मै समय प्रवादक (=भिन्न भिन्न मतोके वादका स्थान) एक शालक (=एक शालावाले) मल्लिका (कोसलेश्वर-महिषी) के आराम तिन्दुकाचीर१मे, जहॉ पोट्ठपाद परिब्राजक है, वहँ चलूँ ।’ तब भगवान् जहाँ ० तिन्दुकाचीर था, वहाँ गये । उस समय पोटु (=प्रोष्ठ) पाद परिब्राजक, राज-कथा, चोर-कथा, महामात्य-कथा, सेना-कथा, भय-कथा, युघ्द्र-कथा, अन्न-कथा, पान-कथा, वस्त्र-कथा, शयन-कथा, गन्घ-कथा, माला-कथा, ज्ञाति (=कुल)-कथा, यान (=युघ्द्र-यात्रा)-कथा, ग्राम-कथा, निगम-कथा, नगर-कथा, जन-पद-कथा, स्त्री-कया, शूर-कथा, विशिखा (=चीरस्ता)-कथा, कुम्भ-स्थान (=पनघट)-कथा, पूर्व-प्रेत (=पहिले मरोकी)-कथा—नानात्व-कथा, लोक-आख्यायिका, समुद्र-आख्यायिका, इति-भवाभव (=ऐसा हुआ, ऐसा नही हुआ)-कथा—आदि निरर्थक कथाये कहता, नाद करता, शोर मचाता, बळी भारी परिब्राजक-परिषद्के साथ बैठा था । पोट्ट-पाद परिब्राजकने दूरहीसे भगवानको आते देखा, देखकर अपनी परिषद्से कहा—“आप सव निशब्द हो, आप सव शब्द मत करे । श्रमण गौतम आ रहे है । वह आयुष्मान् निशब्द-प्रेमी, नि (=अल्प)-शब्द-प्रशंसक है । परिषद्को निशब्द देख, सम्भव है (इधर) आये ।” ऐसा कहनेपर (वे) परिब्राजक चुप हो गये ।
तब भगवान् जहाँ पोट्ठपाद परिब्राजक था, वहाँ गये । पोट्ठपाद परिब्राजकने भगवानसे कहा—
“आइये भन्ते । भगवान् । स्वागत है भन्ते । भगवान् । चिर (काल) के बाद भगवान् यहाँ आये, बैठिये भन्ते । भगवान् यह आसन बिछा है ।”
भगवान् बिछे आमनपर बैठ गये । पोट्ठपाद परिब्राजक भी एक नीचा आसन लेकर, एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे हुए पोट्ठपाद परिब्राजकसे भगवानने कहा—
“पोट्ठ-पाद । किस कथामे इस समय बैठे थे, कया कथा बीचमें चल रही थी ?”
ऐसा कहनेपर पोट्ठपाद परिब्राजकने भगवानसे कहा—
९-पोट्ठपाद-सुत्त
२—संज्ञा निरोध संप्रज्ञात समापत्ति शिक्षासे
“जाने दीजिये भन्ते । इस कथाको, जिस कथामे हम इस समय बैठे थे । ऐसी कथा, भन्ते । भगवानको पीछे भी सुननेको दुर्लभ न होगी । पिछले दिनोके पहिले भन्ते । कुतूहलशालामे जमा हुए, नाना तीर्थो (=पन्थो) के श्रमण-ब्राह्मणोमे अभिसंज्ञा-निरोध (=एक समाधि) पर कथा चली—‘भो । अभिसंज्ञा-निरोध कैसे होता है ?’ वहॉ किन्हीने कहा—‘बिना हेतु=बिना प्रत्यय ही पुरुषकी संज्ञा (=चेतना) उत्पन्न भी होती है, निरुध्द भी होती है । वह उस समय संज्ञा-रहित (=अ-संज्ञी) होता है । इस प्रकार कोई कोई अभि-संज्ञा-निरोधका प्रचार करते है ।’ उससे दूसरेने कहा—‘भो । यह ऐसा नही हो सकता । संज्ञा पुरुषका आत्मा है । वह आता भी है, जाता भी है । जिस समय आता है, उस समय संज्ञा-वान् (=संज्ञी) होता है, जिस समय जाता है, उस समय संज्ञा-रहित (=अ-संज्ञी) होता है । इस प्रकार कोई कोई अभि-‘संज्ञा-निरोध बतलाते है ।’ उसे दूसरेने कहा—‘भो । यह ऐसा नही होगा । (कोई कोई) श्रमण ब्राह्मण महा-ऋध्दि-मान्=महा-अनुभाव-वान् है । वह इस पुरुषकी संज्ञाको (शरीरके भीतर) डालते भी है, निकालते भी है । जिस समय डालते है, उस समय संज्ञी होता है । जिस समय निकालते है, अ-संज्ञी होता है । इस प्रकार कोई कोई अभि-संज्ञा-निरोध बतलाते है ।’ उसे दूसरेने कहा—‘भो । यह ऐसा न होगा । (कोई कोई) देवता-महा-ऋध्दि-मान्=महा-अनुभाव-वान् है । वह इस पुरुषकी संज्ञाको डालते भी है, निकालते भी है ० । इस प्रकार कोई कोई अभि-संज्ञा-निरोध बतलाते है ।’ तब मुझको भन्ते । भगवानके बारेमे ही स्मरण आया—‘अहो। अवश्य वह भगवान् सुगत है जो इन धर्मोमे चतुर है । भगवान् अभि-संज्ञा-निरोधके प्रकृतिज्ञ (=स्वभावज्ञ) है ।’ कैसे भन्ते । अभि-संज्ञा-निरोध होता है ?”
“पोट्ठ-पाद । जो वह श्रमण-ब्राह्मण ऐसा कहते है—बिना हेतु=बिना प्रत्यय ही पुरुषकी संज्ञाये उत्पन्न होती है, निरुध्द भी होती है । आदिको लेकर उन्होने भूल की । सो किस लिये ? स-हेतु (=कारणसे)=स-प्रत्यय पोट्ठ-पाद-पुरुषकी संज्ञाये उत्पन्न होती है, निरुध्द भी होती है । शिक्षासे कोई कोई संज्ञा उत्पन्न होती है, शिक्षासे कोई कोई संज्ञा निरुध्द होती है ।” “और शिक्षा क्या है ?”
(1) शील-सम्पत्ति
“पोट्ठ-पाद । जब संसारमे तथागत, अर्हत्, सम्यक्-सबुध्द, विघा-आचरण-युक्त, सुगत, लोक-विद्, अनुपम पुरुष-चाबुक-सवार, देव-मनुष्य-उपदेशक, बुध्द भगवान्, उत्पन्न होते है।०१ (२५) हाथ-पैर काटने, मारने, बॉधने, लूटने और डाका डालनेसे विरत होती है । इस प्रकार पोट्ठ-पाद । भिक्षुशील-सम्पन्न होता है । ०२ । उसे इन पॉच नीवरणोसे मुक्त हो, अपनेको देखनेसे प्रमोद उत्पन्न होता है । प्रमुदितको प्रीति उत्पन्न होती है । प्रीति-सहित चित्तवालेकी काया अ-चचल (=प्रश्रब्ध) होती है । प्रश्रब्ध-कायवाला सुख-अनुभव करता है । सुखितका चित्त एकाग्र होता है ।
(२) समाधि-सम्पत्ति
वह काम-भोगोसे पृथक् हो, बुरी बातोसे पृथक् हो, वितर्क और विवेक सहित उत्पन्न प्रीतिसुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । उसकी जो वह पहिलेकी काम-संज्ञा है, वह निरुध्द (=नष्ट) होती है । विवेकसे उत्पन्न प्रीति-सुखवाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा उस समय होती है, जिससे कि वह उस समय सूक्ष्म-सत्य-संज्ञी होता है । इस शिक्षासे भी कोई कोई संज्ञाये उत्पन्न होती है, कोई कोई निरुध्द होती है ।
“और भी पोट्ठपाद । भिक्षु वितर्क विचारके उपशान्त होनेपर, भीतरके सप्रसाद (=प्रसन्नता)
=चित्तकी एकाग्रतासे युक्त, वितर्क-विचार-रहित समाधिसे उत्पन्न प्रीति-सुख-वाले द्वितीय ध्यानको, प्राप्त हो विहरता है । उसकी जो वह पहिली विवेकसे उत्पन्न प्रीति-मुख-वाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा थी, वह निरूध्द होती है । समाधिसे उत्पन्न प्रीति-सुख-वाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञासे युक्त ही वह उस समय होता है । इस शिक्षासे भी कोई कोई संज्ञा उत्पन्न होती है, कोई कोई संज्ञा निरूध्द होती है ।०
“और फिर पोट्ठपाद । भिक्षु प्रीति और विराग ध्दारा उपेक्षायुक्त्त हो ० तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । उसकी वह पहिलेकी समाधिसे उत्पन्न प्रीति-सुख-वाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा निरूध्द होती है। उपेक्षा सुखवाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा (ही) उस समय होती है। उपेक्षा-सुख-सत्य-संज्ञा ही वह उस समय होती है । ऐसी शिक्षासे भी कीई कोई संज्ञाये उत्पन्न होती है, कोई कोई संज्ञाये निरूध्द होती है ।०
“और फिर पौट्ठपाद । भिक्षु सुख और दुखके विनाशसे चतुर्थ-ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। उसकी वह जो पहेलेकी उपेक्षा-सुख-वाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा (थी, वह) निरूध्द होती है। सुख और दुखसे परे सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा, उस समय होती है। उस समय सुख-दुख-रहित सूक्ष्म-सत्य-संज्ञावाला ही वह होता है । ऐसी शिक्षासे भी कोई कोई संज्ञाये उत्पन्न होती है, कोई कोई संज्ञाये निरूध्द होती है ।०
“और फिर पोट्ठपाद । भिक्षु रूप-संज्ञाओके सर्वथा छोळनेसे, प्रतिघ (—प्रतिहिंसा)-संज्ञाओके अस्त हो जानसे, नानापन (=नानात्व) की संज्ञाओको मनमे न करनेसे, ‘अनन्त आकाश’—इस आकाश-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है। उसकी जो पहलेकी रूप-संज्ञा थी, वह निरूध्द हो जाती हे, आकाश-आनन्त्य-आयतनवाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा, उस समय होती है। आकाश-आनन्त्य-आयतन सूक्ष्म-सत्य-संज्ञावाला ही वह उस समय होता है। ऐसी शिक्षासे भी ० ।
“और फिर पोट्ठपाद । भिक्षु आकाश-आनन्तय-आयतनको सर्वथा अतिक्रमणकर ‘विज्ञान अन्त है’—इस विज्ञान-आनन्त्य-आयतनको प्राप्त हो विहरता है । उसकी वह पहेलेकी आकाश-आनन्त्य-आयतनवाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा नष्ट होती है। विज्ञान-आनन्त्य-आयतनवाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा उस समय होती है । विज्ञान-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्म-सत्य-संज्ञावाला ही (वह) उस समय होता है । ० ।
“और फिर पोट्ठपाद । भिक्षुविज्ञान-आनन्त्य-आयतनको सर्वथा अतिक्रमणकर ‘कुछ नही है’ — इस आकिचन्य (=न-कुछ-पना)-आयतनको प्राप्त हो विहार करता है । उसकी वह पहलेकी विज्ञान-आनन्त्य-आयतनवाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा नष्ट होती है, आकिचन्य-आयतनवाली सूक्ष्म-सत्य-संज्ञा ही ० वह आकिचन्य-आयतन-सूक्ष्म-सत्य-संज्ञावाला ही उस समय होता है । ० ।
“चूँकि पोट्ठपाद । भिक्षु स्वक-संज्ञी (=अपनीही संज्ञा ग्रहण करनेवाला) होता है, (इसलिये) वह वहॉसे वहॉ, वहॉसे वहॉ, क्रमश श्रेष्ठसे श्रेष्ठतर संज्ञाको प्राप्त (=स्पर्श) करता है । श्रेष्ठतर-संज्ञा-पर स्थित हो, उसको यह होता है—‘मेरा चिंत्तन करना बहुत बुरा (=पापीयस्) है, मेरा न चिंतन करना, बहुत अच्छा (=श्रेयस्) है । यदि मै न चिंतन करूँ=न अभिसंस्करण करूँ, तो मेरी यह संज्ञाये नष्ट हो जावेगी, ओर और भी विशाल (=उदार) संज्ञाये उत्पन्न होगी । क्यो न मै न चिंतन करूँ, न अभिसंस्करण करूँ ।’ उसके चिंतन न करने, अभिसंस्करण न करनेसे, वह संज्ञाये नष्ट हो जाती है, और दुसरी उदार संज्ञाये उत्पन्न नही होती । वह निरोधको प्राप्त करता है । इस प्रकार पोट्ठपाद । क्रमश अभिसंज्ञा (=संज्ञाकी चेतना) निरोधवाली सप्रज्ञात-समापति (=सपजान-समापति) उत्पन्न होती है ।
“तो क्या मानते हो, पोट्ठपाद । क्या तुमने इससे पूर्व इस प्रकारकी क्रमश अभिसंज्ञा-निरोध सप्रज्ञात-समापति सुनी थी ॽ”
“नही, भन्ते । भगवानके भाषण करनसे ही मै इस प्रकार जानता हूँ ।”
“चूँकि पोट्ठपाद । भिक्षु यहॉ स्वक-संज्ञी होता है । (इसलिये) वह वहॉसे वहॉ, वहॉसे वहॉ क्रमश संज्ञाके अग्र (=अन्तिम स्थान) को प्राप्त (=स्पर्श) करता है । संज्ञाके अग्रपर स्थित हो, उसको ऐसा होता है—‘मेरा चिंतन करना बहुत बुरा है, चिंतन न करना मेरे लिये बहुत अच्छा है ० ।’ वह निरोधको स्पर्श करता है । इस प्रकार पोट्ठपाद । क्रमश अभिसंज्ञा-निरोध सप्रज्ञात-समाधि होती है । ऐसे पोट्ठपाद । ०”
३—संज्ञा और आत्मा
“भन्ते । भगवान् क्या एकहीको संज्ञा-अग्र (=संज्ञाओमे सर्वश्रेष्ठ) बतलाते है, या पृथक् पृथक् भी संज्ञाग्रोको (वैसा) कहते है ?”
“पोट्ठपाद । मै एक भी सज्ञाग्र बतलाता हूँ, और पृथक् पृथक् भी संज्ञाग्रोको बतलाता हूँ । पोट्ठपाद ।
जैसे जैसे निरोधको प्राप्त करता है, वैसे वैसे संज्ञा-अग्रको मै कहता हूँ । इस प्रकार पोट्ठपाद । मै एक भी संज्ञाग्र बतलाता हूँ, ओर पृथक् पृथक् भी संज्ञाग्रोको बतलाता हूँ ।”
”भन्ते । संज्ञा पहिले उत्पन्न होती है, पीछे ज्ञान, या ज्ञान पहिले उत्पन्न होता है, पीछे संज्ञा, या संज्ञा और ज्ञान न-पूर्व न-पीछे उत्पन्न होते है ?”
“पोट्ठपाद । संज्ञा पहले उत्पन्न होती है, पीछे ज्ञान । संज्ञाकी उत्पत्तिसे (ही) ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । वह यह जानता है—इस कारण (=प्रत्यय) से ही यह मेरा ज्ञान उत्पन्न हुआ है । पोट्ठपाद । इस कारणसे यह जानना चाहिये कि, संज्ञा प्रथम उत्पन्न होती है, ज्ञान पीछे, संज्ञाकी उत्पत्तिसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है ।”
“संज्ञा (ही) भन्ते । पुरूषका आत्मा है, या सज्ञा अलग है, आत्मा अलग ?”
“किसको पोठ्टपाद । तू आत्मा समझता है ?”
“भन्ते। मै आत्माको स्थूल (=औदारिक) रूपी=चार महाभूतोवाला,=कौर-कौर करके खानेवाला (=कवलिकार-आहार) मानता हूँ ।”
“तो पोट्ठपाद । तेरा आत्मा यदि स्थूल ०, रूपी=चतुर्महाभौतिक, कवलिकार-आहार-वान् है, तो ऐसा होनेपर पोट्ठपाद । संज्ञा दूसरी ही होगी, आत्मा दूसरा ही होगा । सो इस कारणसे भी पोट्ठपाद । जानना चाहिये, कि संज्ञा दूसरी होगी, आत्मा दूसरा । पोट्ठपाद । रहने दो इसे—आत्मा स्थूल ० है, (इस) के होनेहीसे इस पुरूषकी दूसरी ही संज्ञाये उत्पन्न होती है, दूसरी ही संज्ञाये निरूध्द होती है । सो इस कारणसे भी पोट्ठपाद । जानना चाहिये, संज्ञा दूसरी हे, आत्मा दूसरा ।”
“भन्ते । मै आत्माको समझता हूँ—मनोमय सब अंग-प्रत्यंगवाला, इन्द्रियोसे परिपूर्ण ।”
“ऐसा होनेपर भी पोट्ठपाद । तेरी संज्ञा दूसरी होगी और आत्मा दूसरा । सो इस कारणसे भी पोट्ठपाद । जानना चाहिये, (कि) संज्ञा दूसरी होगी, आत्मा दूसरा । पोट्ठपाद । (जब) सर्वाग-प्रत्यग युक्त इन्द्रियोसे परिपूर्ण मनोमय आत्मा है, तभी इस पुरूषकी कोई कोई संज्ञाये उत्पन्न होती है, कोई कोई संज्ञाये निरूध्द होती है । इस कारणसे भी पोट्ठपाद । ० ।”
“भन्ते । मै आत्माको रूप-रहित संज्ञा-मय समझता हूँ ।”
“यदि पोट्ठपाद । तेरा आत्मा रूप-रहित संज्ञामय है, तो ऐसा होनेपर पोट्ठपाद । (इस) कारणसे जानना चाहिये, कि संज्ञा दूसरी होगी, और आत्मा दूसरा-। पोट्ठपाद । जब रुप-रहित संज्ञा-मय आत्मा है, तभी इस पुरूषकी ० ।”
“भन्ते । क्या मै यह जान सकता हूँ—कि संज्ञा पुरूषकी आत्मा है, या संज्ञा दूसरी (चीज है,) आत्मा दूसरी (चीज) ?”
“पोट्ठपाद । भिन्न दृष्टि (=धारणा)-वाले भिन्न क्षान्ति (=चाह)-वाले, भिन्न रूचिवाले, भिन्न-आयोग-वाले, भिन्न-आचार्य-रखनेवाले तेरे लिये—‘संज्ञा पुरुषकी आत्मा है ०’—जानना मुश्किल है ।”
“यदि भन्ते । भिन्न-दृष्टिवाले ० मेरे लिये—‘संज्ञा पुरूषकी आत्मा है ०‘—जानना मुश्किल है । तो फिर क्या भन्ते । ‘लोक नित्य (=शाश्वत) है,’ यही सच है, दूसरा (अनित्यताका विचार) निरर्थक (=मोघ) है ?”
(१) अव्याकृत (=अनिर्वचनीय)
“पोटुपाद । —‘लोक नित्य है, यही सच है, और दूसरा (वाद) निरर्थक है—इसे मैने अ-व्याकृत (=कथनका अ-विषय) कहा है ।”
“कया भन्ते । —‘लोक अ-शाश्वत (=अ-नित्य) है, यही सच और सब (वाद) निरर्थक है ?”
“पोट्ठपाद । ० इसे भी मैने अ-व्याकृत कहा है ।”
“कया भन्ते । —‘लोक अन्तवान् है’ ० ?”
“पोट्ठपाद । ० इसे भी मैने अ-व्याकृत ० ।”
“कया भन्ते ।—‘लोक-अन्-अन्त है ० ।”
“पोटुपाद । ० इसे भी मैने अव्याकृत ० ।”
“० ‘वही जीव है, वही शरीर है ० ?”
“० इसे भी मैने अव्याकृत कहा है ० ?”
“० ‘जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है’ ० ?”
“० अ-व्याकृत ० ।”
“० ‘मरनेके बाद तथागत फिर (पैदा) होता है ० ?”
“० अ-व्याकृत ० ।”
“० ‘मरनेके बाद फिर तथागत नही होता’ ० ?”
“० अ-व्याकृत ० ।”
“० ‘० होता है, ओर नही भी होता है’ ० ?”
“० अ-व्याकृत ० ।”
“० ‘मरनेके बाद तथागत न होता है, न नही होता है ० ?”
“० अ-व्याकृत ० ।”
“किसलिये भन्ते । भगवानने इसे अ-व्याकृत कहा है ?”
“पोट्ठपाद । न यह अथॅ-युकत (=स-प्रयोजन) है, न घर्म-युकत, न आदि-ब्रह्मचर्यके उपयुक्त, न निर्वेद (=उदासीनता)के लिये, न विरागके लिये, न निरोघ (=कलेश-विनाश)के लिये, न उप-शम (=शान्ति)के लिये, न अभिज्ञाके लिये, न सबोधि (=परमार्थ-ज्ञान)के लिये, न निर्वाणके लिये है । इसलिये मैने इसे अ-व्याकृत कहा है ।”
“भन्ते । भगवानने कया कया व्याकृत किया है ?”
“पोट्ठपाद । ‘यह दुख है’ (इसे) मैने व्याकृत किया है । ‘यह दुखका हेतु है’ मैने व्याकृत किया है । ‘यह दुख-निरोघ है’ ० । ‘यह दुख-निरोघ-गामिनी प्रतिपद् (=मागॅ) है’ ० ।”
“भन्ते । भगवानने इसे कयो व्याकृत किया है ?”
“पोट्ठपाद । यह सार्थक, घर्म-उपयोगी, आदि-ब्रह्म-चर्य-उपयोगी है । यह निर्वेदके लिये, विरागके लिये, निरोधके लिये, उपशमके लिये, अभिज्ञाके लिये, सबोघके लिये, निर्वाणके लिये है । इसलिये मैने इसे व्याकृत किया ।”
“यह ऐसा ही है, भगवान् । यह ऐसा ही है, सुगत । अब भन्ते । भगवान् जिसका काल समझते हो (करे) ।”
तब भगवान् आसनसे उठकर चल दिये ।
तव परिब्राजकोने भगवानके जानेके थोळी ही देर वाद, पोट्ठ-पाद परिब्राजकको चारो ओरमे वाग्-वाणोद्वारा जर्जरित करना शुरु किया—“इसी प्रकार आप पोट्ठपाद, जो जो श्रमण गौतम कहता (रहा), उसीको अनुमोदन करते (रहे) ‘यह ऐसा ही है भगवान् । यह ऐसा ही है सुगत ।” हम तो
श्रमण गौतमका कहा कोई धर्म एक-सा नही देखते, कि—‘लोक शाश्वत हे’, ‘लोक अशाश्वत है’, लोक अन्तवान् है’, ‘वही जीव है, वही शरीर है’,‘वही जीव है, वही शरीर है’, ‘दूसरा जीव है, दूसरा शरीर है’, ‘तथागत मरनेके बाद होता है’, ‘तथागत मरनेके बाद नही होता’ ‘तथागत मरनेके बाद होता भी है, नही भी होता है’।’ ‘तथागत मरनेके बाद न होता है, न नही होता है ।’ ”
ऐसा कहनेपर पोट्ठ-पाद परिब्राजकने उन परिब्राजकोसे यह कहा—“मे भी भो । श्रमण गौतमका कहा कोई धर्म एक-सा नही देखता .‘लोक शाश्वत है ० । बल्कि श्रमण गौतम ‘भूत=तथ्य (=यथार्थ) धर्ममे स्थित हो, धर्म-नियामक-प्रतिषद् (=०मार्ग, ज्ञान) को कहता है । (तो फिर) मेरे जैसा जानकार, श्रमण गौतमके सुभाषितका सुभाषितके तौरपर कैसे अनुमोदन न करेगा ॽ”
तब दो तीन दिनके बीतनेपर, चित्त हत्थिसारिपुत्त और पोट्ठ-पाद परिब्राजक जहॉ भगवान् थे, वहॉ गये । जाकर चित्त हत्थिसारिपुत्त भगवानको अभिवादनकर एक और बैठ गया । पोट्ठपाद परिब्राजकभी भगवानके साथ समोदनकर, एक ओर बैठ गया । एक और बैठे पोट्ठपाद परिब्राजकने भगवानसे कहा—
“उस समय भन्ते । भगवानके चले जानेके थोळी ही देर बाद (परिब्राजक) मुझे चारो ओरसे वाग्वाणोद्वारा जर्जरित करने लगे—‘इसी प्रकार आप पोट्ठ-पाद । ० । ० मेरे जैसा जानकार ० सुभाषितको ० कैसे अनुमोदन नही करेगा ॽ”
“पोट्ठ-पाद । वह सभी परिब्राजक अन्धे-ऑखबिना है । तूही एक उनमे ऑखवाला है। पोट्ठ-पाद । मैने (कितनेही) धर्म एकाशिक कहे है=प्रज्ञापित किये है । कितने ही धर्म अन्-एकाशिक भी कहे है ० । पोट्ठ-पाद । मैने कौनसे धर्म अन्-एकाशिक कहे है ०ॽ ‘लोक शाश्वत है’ इसको मैने अनैकाशिक धर्म कहा है ० । ‘लोक अ-शाश्वत है’ ० अनैकाशिक धर्म० । ० । ‘तथागत मरनेक् बाद न होता है, न नही होता है’ मैने अनैकाशिक धर्म कहा है० । यह धर्म पोट्ठ-पाद । न सार्थक है, न धर्म-उपयोगी है, न आदि-ब्रह्मचर्य-उपयोगी है । न निर्वेदके लिये०, न वैराग्यके लिये० । इसलिये इन्हे मैने अन्-एकाशिक कहा ० ।
“पोट्ठ-पाद । मैने कौनसे एक-आशिक धर्म कहे है—प्रज्ञापित किये है ॽ ‘यह दु ख है’ ० । ० “यह दुख-निरोध-गामिनी-प्रतिषद् है” इसे पोट्ठ-पाद । मैने एकाशिक धर्म बतलाया है० । यह धर्म पोट्ठ-पाद । सार्थक है ० । इसलिये मैने इन्हे एकाशिक धर्म कहा है, प्रज्ञापित किया है ।
(२) आत्मवाद
“पोट्ठ-पाद । कोई कोई श्रमण ब्राह्मण ऐसे वाद (=मत) -वाले ऐसी दृष्टिवाले है—“मरनेके बाद आत्मा अरोग, एकान्तसुखी (=केवल सुखी) होता है’ । उनसे मै यह कहता हूँ—‘सच-मुच तुम सब आयुष्मान् इस वादवाले—इस दृष्टिवाले हो—‘मरनेके बाद आत्मा अ-रोग एकान्त सुखी होता है ॽ ऐसा पूछनेपर वह ‘हॉ’ कहते है । तब उनसे मै यह कहता हूँ—‘क्या तुम सब आयुष्मान् उस एकान्त सुखवाले लोकको जानते, देखते, विहरते हो’ ? ऐसा पूछनेपर ‘नही’ कहते है । उनसे मै यह कहता हूँ—‘क्या तुम सब आयुष्मान एक रात या एक दिन, आधी रात या आध दिन एकान्त सुखवाले आत्माको जानते हो’ ॽ यह पूछनेपर ‘नही’ कहते है। उनसे मै यह कहता हूँ—‘क्या आप सब आयुष्मान् जानते है, यही मार्ग-यही प्रतिषद् एकान्त सुखवाले लोकके साक्षात्कारके लिये है ॽ ऐसा पूछनेपर ‘नही’ कहते है। उनसे मै यह पूछता हूँ— ‘क्या आप सब आयुष्मान् जो वह देवता एकान्त सुखवाले लोकमे उत्पन्न है, उनके कहे शब्दको एकान्त सुखवाले लोकके साक्षात्कारके लिये सुनते है—‘मार्ष। ठीक मार्गपर आरूढ हो, मार्ष । सरल मार्गपर आरूढ हो, हम भी मार्ष । ऐसे ही मार्गारूढ हो, एकान्त सुखवाले लोकमे उत्पन्न हुए है ॽ’ ऐसा पूछनेपर ‘नही’ कहते है। तो क्या मानते हो पोट्ठ-पाद । क्या ऐसा होनेसे उन श्रमण ब्राह्मणोका कथन प्रमाण (=प्रतिहरण)–रहित नही होता ॽ”
“अवश्य, भन्ते । ऐसा होनेपर उन श्रमण ब्राह्मणोका कथन प्रमाण-रहित होता है ।”
“जैसे कि पोट्ठ-पाद । कोई पुरुष ऐसा कहे—‘इस जनपद (=देश) में जो जनपदकल्याणी (=देशकी सुन्तरम स्त्री) है, मैं उसको चाहता हूँ, उसकी कामना करता हूँ’ । उसको यदि (लोग) ऐसा कहे—हे पुरुष जिस जन-पद कल्याणीको तू चाहता है=कामना करता है, जानता है, कि वह क्षत्रियाणी है, ब्राह्मणी है, वैश्य-स्त्री है, या शूद्री है’ ? ऐसा पुछनेपर ‘नही’ बोले, तब उसको यह कहे—‘हे पुरुष । जिस जन-पद-कल्याणीको तू चाहता है ० जानता है ० (वह) अमुक नामवाली अमुक गोत्रवाली है, लम्बी, छोटी या मझोले कदकी, काली, श्यामा या, मद्गुर (=मगुर मछली) के वर्ण की है, इस ग्राम-निगम या नगर, मे (रहती) है ?’ ऐसा पूछनेपर ‘नही’ कहे तब उसको यह कहे—‘हे पुरुष जिसको तू नही जानता, जिसको तूने नही देखा, उसको तू चाहता है, उसकी तू कामना करता है’ ? ऐसा पुछनेपर ‘हाँ’ कहे । तो कया मानते हो पोट्ठ-पाद । कया ऐसा होनेपर उस पुरुषका भाषण प्रमाण-रहित नही हो जाता ?”
“अवश्य भन्ते । ऐसा होनेपर उस पुरुषका भाषण प्रमाण-रहित हो जाता है ।”
“इसी प्रकार पोट्ठ-पाद । जो वह श्रमण ब्राह्मण इस तरहके वादवाले=दृष्टिवाले है—‘मरने-के बाद आत्मा अ-रोग एकान्त-सुखी होता है,’ उनको मैं यह कहता हूँ—‘सचमुच तुम सब आयुष्मान् ० । ० पोट्ठ-पाद । कया ० उन श्रमण-ब्राह्मणोका कथन प्रमाण-रहित नही है ?”
“अवश्य । भन्ते ० ।”
“जैसे पोट्ठ-पाद । कोई पुरुष महलपर चढनेके लिये चौरस्ते (=चातुर्महापथ) पर, सीढी बनावे । तब उसको (लोग) यह कहे—‘हे पुरुष । जिस (प्रासाद)के लिये तू सीढी बनाता है, जानता, है वह प्रासाद पूर्व दिशामें है, दक्षिण दिशामे, पश्चिम दिशामे, (या) उत्तर दिशामे है ?, ऊँचा, नीचा (या) मझोला है ?’ ऐसा पूछनेपर ‘नही’ कहे । उसको यह कहे—‘हे पुरुष । जिसको तू नही जानता, तूने नही देखा, उस प्रासादपर चढने के लिये सीढी बना रहा है?’ ऐसा पूछनेपर ‘हॉ’ कहे । तो क्या मानते हो पोट्ठ-पाद । क्या ऐसा होनेपर उस पुरुषका भाषण प्रमाण-रहित नही हो जाता ?”
“अवश्य भन्ते । ०”
“इसी प्रकार पोट्ठ-पाद । जो वह श्रमण ब्राह्मण० ‘मरनेके बाद आत्मा अ-रोग एकान्तसुखी होता है ० । ०—“अवश्य भन्ते । ०”
३—तीन प्रकारके शरीर
“पोट्ठ-पाद । तीन शरीर-ग्रहण है, स्थूल (=औदारिक) शरीर-ग्रहण, मनोमय शरीर-ग्रहण, अ-रुप (=अभौतिक) शरीर-ग्रहण । पोट्ठ-पाद । स्थूल शरीर-ग्रहण कया है ? रुपी=चार महामृतोसे बना कवलिंकार (=ग्रास ग्रास करके) आहार करनेवाला, यह स्थूल शरीर-ग्रहण है । मनोमय आत्म-प्रतिलाभ कया है ? रुपी मनोमय सर्व-आहार सर्व अग-प्रत्यग-वाला, इन्द्रियोसे परिपूर्ण, यह मनोमय शरीर-ग्रहण है । अ-रुप (=अभौतिक) शरीर-ग्रहण क्या है ॽ अ-रूप (देवलोकमे) संज्ञामय होना, यह अ-रूप शरीर ग्रहण है । पोट्ठ-पाद । मैं स्थूल शरीर-परिग्रहसे छूटनेके लिये घर्म उपदेश करता हूँ, इस तरह मार्गारुढ हुओके चित्तमल उत्पन्न करनेवाले (=सक्लेशिक) घर्म छूट जायँगे । शोघक (=व्यवदानीय) धर्म, प्रज्ञाकी परिपूर्णता, विपुलताको प्राप्त होगे, (और वह पुरुष) इसी जन्ममे स्वयं जानकर साक्षात्-कर प्राप्त कर विहरेगा । शायद पोट्ठ-पाद । तुम्हे (यह विचार) हो—‘सक्लेशिक घर्म छूट जायेंगे ० , इसी जन्ममे ० प्राप्त कर विहरेगा, (किन्तु) वह विहरना कठिन ‘(=दुख) होगा ।’ पोट्ठ-पाद । ऐसा नही समझना चाहिये, ० । उसे प्रामोद्य (=प्रमोद) भी होगा, प्रीति, निश्चलता (=प्रश्रब्घि), स्मृति, सम्प्रजन्य और सुख विहार भी होगा ।”
“पोट्ठ-पाद । मै मनोमय शरीर-परिग्रहके परित्यागके लिये भी घर्म उपदेश करता हूँ । जिससे कि मार्गारुढ होनेवालोके शक्लेशिक धर्म छूट जायेगे ० । ० । ० सुत विहार भी होगा ।
“अ-रुप शरीर-परिग्रहके परित्यागके लिये भी पोट्ठ-पाद । मैं घर्म उपदेश करता हूँ । ० । ० मुग विहार भी होगा ।”
“यदि पोट्ठ-पाद । दूसरे लोग हमे पूछे— ‘कया है आवुसो । वह स्थूल शरीर-परिग्रह जिससे छूटनेके लिये तुम घर्म उपदेश करते हो, और जिस प्रकार मार्गारुढ हो०, इसी जन्ममें स्वयं जानकर विहरोगे ?’ उसके ऐसा पूछनेपर हम उत्तर देंगे—‘यह है आवुसो । यह स्थूल शरीर-परिग्रह, जिससे छूटनेके लिये हम घर्म उपदेश करते है । ० ।
“दूसरे लोग यदि पोट्ठ-पाद । हमे पूछे—कया है आवुसो । मनोमय शरीर-परिग्रह ० । ० विहरेंगे ?
“यदि पोट्ठ-पाद । दूसरे लोग हमे पुछे—कया है आवुमो । अ-रुप शरीर-परिग्रह ० ? ० । ० ।
“जैसे पोट्ठ-पाद । कोई पुरुष प्रासादपर चरनेके लिये उसी प्रासादके नीचे सीढी बनावे । उसको यह पूछे—‘हे पुरूष । जिस प्रासादपर चरनेके लिये तुम सीढी बनाते हो , जानते हो, वह प्रासाद पूर्व दिशामे है, या दक्षिण ० , ऊँचा है या नीचा या मझोला ? ।’ वह यदि कहे—‘यह है आवुसो । वह प्रासाद, जिसपर चढनेके लिये, उसीके नीचे मै सीढी बनाता हूँ ।’ तो कया मानते हो पोट्ठ-पाद । ऐसा होनेपर कया उस पुरुषका भाषण प्रामाणिक होगा ?”
“अवश्य भन्ते । ऐसा होनेपर उस पुरुषका भाषण प्रामाणिक होगा ।”
“इसी प्रकार पोट्ठ-पाद । यदि दूसरे हमे पूछे—आवुसो । वह स्थूल शरीर-परिग्रह कया है ० । ० ।
“ ०आवुसो । वह मनोमय शरीर-परिग्रह कया है ० ॽ ० ।
“ ०आवुसो । वह अ-रूप शरीर-परिग्रह क्या है, जिसके (परित्यागके) लिये तुम घर्म उपदेश करते हो, ० , ० ? उनके ऐसा पूछने पर हम वह उत्तर देंगे—‘यह है आवुसो । वह अ-रुप-शरीर-परिग्रह ० । ० तो कया मानते हो पोट्ठ-पाद । ऐसा होनेपर कया उस पुरुषका भाषण प्रामाणिक होगा ?”
“अवश्य भन्ते । ०”
४—वर्तमान शरीर ही सत्य
ऐसा कहनेपर चित्त हत्थिसारिपुनसे भगवानने कहा—“भन्ते । जिस समय स्थूल शरीर-परि-ग्रह होता है, उस समय मनोमय-शरीर-परिग्रह तथा अ-रुप-शरीर-परिग्रह मोघ (=मिथ्या) होते है, स्थूल शरीर-परिग्रह हो उस समय उसके लिये सच्चा होता है । जिस समय भन्ने । मनोमय-शरीर-परिग्रह होता है, उस समय स्थूल शरीर-परिग्रह तथा अ-रुप-शरीर-परिग्रह मिथ्या होते है, मनोमय-शरीर-परिग्रह ही उस समय उसके लिये सच्चा होता है । जिस समय भन्ते । अ-रुप-शरीर-परिग्रह होता है, उस समय स्थूल-शरीर-परिग्रह तथा मनोमय-शरीर-परिग्रह मिथ्या होते है, अ-रुप-शरीर-परिग्रह ही उस समय उसके लिये सच्चा होता है ।”
“जिस समय चित्त । स्थूल-शरीर-परिग्रह होता है, उस समय ‘मनोमय-शरीर-परिग्रह है’ नही समझा जाता । न ‘अ-रुप-शरीर-परिग्रह है’ यही समझा जाता है । ‘स्थूल-शरीर-परिग्रह है’ यही समझा जाता है । जिस समय चित्त । मनोमय-शरीर-परिग्रह ० । जिस समय अ-रुप-शरीर-परिग्रह ० । यदि चित । तुझे यह पूछे—तू भूत कालमे था, नही तो तू न था ? भविष्यकालमे तू होगा (=रहेगा), नही तो तू न होगा ? इस समय तू है, नही तो तू नही है ?’ ऐसा पूछनेपर चित्त । तू कैसे उतर देगा ?”
“ऐसा पूछने पर भन्ते । मै’ यह उतर दूँगा—‘मैं भूतकालमे था, मै ‘नही तो न था । भविष्य-
कालमे मै होऊँगा, नही तो मैं न होऊँगा । इस समय मै हूँ, नही तो मै नही हूँ’ । वैसा पूछनेपर भन्ते । म इस प्रकार उत्तर दूँगा ।”
“यदि चित्त । तुझे यह पूछे—जो तेरा भूतकालका शरीर-परिग्रह था, वही तेरा शरीर-परिग्रह सत्य है, भविष्यका और वर्तमानका (क्या) मिथ्या है ? जो तेरा भविष्यमे होनेवाला शरीर-परिग्रह है, वही ० सच्चा है, भूतका और वर्तमानका (क्या) मिथ्या है ? जो इस समय तेरा वर्तमानका शरीर-परिग्रह है, वही तेरा शरीर-परिग्रह सच्चा है, भूत और भविष्यका (क्या) मिथ्या है ॽ ऐसा पूछनेपर चित्त । तू कैसे उत्तर देगा ॽ”
“यदि भन्ते । मुझे ऐसा पूछेंगे ‘जो तेरा भूतकालका शरीर-परिग्रगण था ० ।’ ऐसा पूछनेपर भन्ते । मै इस प्रकार उत्तर दूँगा-‘जो मेरा भूतका शरीर-परिग्रह था, वही शरीर-परिग्रह मेरा उस समय सच्चा था, भविष्य और वर्तमानके ० असत्य थे । जो मेरा, भविष्यमे अन्-आगत शरीर-परिग्रह होगा, वही शरीर-परिग्रह मेरा उस समय सच्चा होगा, भूत और वर्तमानके शरीर-परिग्रह असत्य होंगे । जो मेरा इस समय वर्तमान शरीर-परिग्रह है, वही शरीर-परिग्रह मेरा (इस समय) सच्चा है, भूत और भविष्यके शरीर-परिग्रह असत्य है ।’ ऐसा पूछनेपर भन्ते । मै यह उत्तर दूँगा ।”
“ऐसे ही चित्त । जिस समय स्थूल शरीर-परिग्रह होता है, उस समय मनोमय-शरीर-परिग्रह नही कहा जाता, न उस समय अ-रूप-शरीर-परिग्रह कहा जाता है, स्थूल शरीर-परिग्रह ही उस समय कहा जाता है । जिस चित्त । मनोमय-शरीर-परिग्रह ० । जिस समय चित्त । अरूप शरीर-परिग्रह होता है, उस समय ‘स्थूल शरीर-परिग्रह है’ नही कहा जाता , न ‘मनोमय-शरीर-परिग्रह है’, कहा जाता है । ‘अरूप-शरीर-परिग्रह है’ यही कहा जाता है । जैसे चित्त । गायसे दूध, दूधसे दही, दहीसे नवनीत (=नेनू), नवनीतसे घी (=सर्पिष) , सर्पिष्-मण्ड (=घीका सार) होता है । जिस समय दूध होता है, उस समय न दही होता है, न नवनीत ०, न सर्पिष् ०, न सर्पिष्-मड ०, दूध ही उस समय उसका नाम होता है । जिस समय दही ० । ० नवनीत ० । ० सर्पिष् ० । सर्पिष्-मड ० । ऐसे ही चित्त । जिस समय स्थूल शरीर-परिग्रह होता है ० । ० मनोमय ० । ० अ-रूप ० । चित्त । यह लौकिक सज्ञाये है=लौकिक निरूक्तियाँ है=लौकिक व्यवहार है=लौकिक प्रज्ञप्तियाँ है, तथागत बिना लिप्त हुये उन्हे व्यवहार करते है ।”
“ऐसा कहनेपर पोट्ठ-पाद परिब्राजकने भगवानसे कहा—
“आश्चर्य । भन्ते । । अद्भुत । भन्ते । । ० १ आजसे आप गौतम मुझे अजलिवद्ध शरणा-गत उपासक धारण करे ।”
चित्त हत्थि-सारि-पुत्त (=चित्र हस्ति-सारि-पुत्र) ने भगवानसे कहा—
“आश्यर्य । भन्ते । । अद्भुत । भन्ते । । ० । भन्ते । मैं भगवानका शरणागत हूँ, धर्म और भिक्षु-सघका भी । भन्ते । भगवानके पास मुझे प्रव्रज्या मिले, उपसपदा मिले ।”
चित्त-हत्थि-सारि-पुत्तने भगवानके पास प्रब्रज्या पाई, उपसपदा पाई । आयुष्मान् चित्त-हत्थि-सारि-पुत्त उपसपदा प्राप्त करनेके थोळे ही दिनो बाद, एकाकी, एकातवासी, प्रमाद-रहित, उद्योगी, आत्म-सयमी हो, विहार करते हुये, जल्दी ही, जिसके लिये कुल-पुत्र अच्छी तरह घरसे बेघर हो प्रव्रजित होते है, उस अनुपम ब्रह्मचर्य-फलको, इसी जन्ममे जानकर=साक्षात् कर=पाकर, विहार करने लगे ‘जन्म क्षीण हो गया, ब्रह्मचर्य-वास पूरा हो गया, करना था, सो कर लिया, और कुछ करनेको (बाकी) नही रहा ।’ यह जान गये । आयुष्मान् चित्त हत्थि-सारि-पुत्त अर्हतोमेसे एक हुये ।