दीध-निकाय
25. उदुम्बरिकसीहनाद-सुत्त (३।२)
१—न्यग्रोध द्वारा बुद्धकी निन्दा । २—अशुद्ध तपस्या । ३—शुद्ध तपस्या ।
४—वास्तविक तपस्या—चार भावनायें । ५—न्यग्रोधका पश्चात्ताप ।
६—बुद्धधर्मसे लाभ इसी शरीरमें ।
ऐसा मैने सुना—एक समय भगवान् राजगृहके गृध्र-कूट पर्वतपर विहार करते थे । उस समय न्यग्रोध परिब्राजक तीन हजार परिब्राजकोकी बळी मण्डलीके साथ उदुम्बरिका (नामक) परिब्राजक-आराममे वास करता था।
१—न्यग्रोध द्वारा बुद्धकी निन्दा
तब सन्धान गृहपति दोपहरको (=दिन ही दिन) भगवानके दर्शनके लिये राजगृहसे निकला । तब सन्धान गृहपतिके मनमे यह हुआ—भगवानके दर्शनके लिये यह ठीक समय नही है, भगवान् समाधि मे बैठे है । दूसरे भिक्षु जो ध्यान कर रहे है उनसे भी मिलनेका यह ठीक समय नही है । सभी भिक्षु ध्यानमे बैठे है । अत, मै जहाँ उदुम्बरिका परिब्राजक-आराम है, और जहॉ न्यग्रोध परिब्राजक है, वहॉ चलूँ ।
तब सम्धान गृहपति जहॉ उदुम्बरिका परिब्राजिक-आराम था और जहॉ न्यग्रोध परिब्राजक था, वहॉ गया । उस समय न्यग्रोध परिब्राजक राज-कथा, चोर-कथा, माहात्म्य-कथा, सेना-कथा, भय-कथा, युद्ध-कथा, अन्न-कथा, पान-कथा, वस्त्र-कथा, शयन-कथा, गध-कथा, माला-कथा, ज्ञाति (=कुल)-कथा, यान(=युद्धयात्रा)-कथा, निगम-कथा, नगर-कथा, जनपद-कथा, स्त्री-कथा, शुर-कथा, विशिखा (=चौरस्ता) कथा, कुम्भस्थान (=पनघट)-कथा, पूर्वप्रेत(=पहले मरोकी)-कथा, नानात्त्व-कथा, लोक-अख्यायिका, समुद्र-अख्यायिका, इति-भवाभव (=ऐसा हुआ, ऐसा नही हुआ)-कथा आदि निरर्थक कथा कहती, नाद करती, शोर मचाती, तीन हजार परिब्राजकोकी बळी भारी परिब्राजक-परिषद्के साथ बैठा था ।
न्यग्रोध परिब्राजकने सन्धान गृहपतिको दूर हीसे आते देखा । देखकर अपनी मण्डलीको शान्त किया—“आप लोग चुप हो जायँ, हल्ला न मचावे । यह श्रमण गौतमका श्रावक सन्धान गृहपति आ रहा हे । श्रमण गौतमके जितने उजले वस्त्र पहननेवाले गृहस्थ श्रावक राजगृहमे रहते है, उनमे यह सन्धान गृहपति भी एक है। ये आयुष्यमान् नि शब्द चाहनेवाले है, नि शब्दमे विनीत है, नि शब्दताकी प्रशसा करनेवाले है । ये नि शब्द मण्डलीमे ही जाना अच्छा समझते है ।”
ऐसा कहनेपर वे परिब्राजक चुप हो गये । तब सन्धान गृहपति जहाँ न्यग्रोध परिब्राजक था वहॉ गया । जाकर कथा कुशलक्षेम पूछ सलाप करके एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठ सन्धान गृहपति न्यग्रोध परिब्राजकसे यह धोला−
“ये अन्यतीर्थिक (=दूसरे मतवाले) परिब्राजक, जो जमा होकर ० आदि निरर्थक कथा कहते ०
शोर मचाते दूसरे ही प्रकारके है, और वे भगवान् जो समाघि लगानेके योग्य, मनुष्योसे अगम्य, शात, एकान्त और निर्जन वनोमे वास करते है, बिलकुल दूसरे है ।”
ऐसा कहनेपर न्यग्रोघ परिब्राजकने सन्घान गृहपतिसे कहा—“सुनो गृहपति । जानते हो किसके काथ श्रमण गौतम सलाप करते है, किसके साथ साक्षात्कार करते है, किसको ज्ञानोपदेश करते है ॽ शून्यागारमे रहते रहते श्रमण गौतमकी बुद्धि मारी गई है । श्रमण गौतम सभासे मुँह चुराते है । सवाद करनेमे असमर्थ है । वे लोगोसे अलग अलग भागे फिरते है, जैसे कानी गाय अकेले अलग ही अलग भागी फिरता है । इसी तरह श्रमण गौतमकी प्रज्ञा मारी गई है ० । सुनो गृहपति । यदि श्रमण गौतम इस सभामे आवे, तो एक ही प्रश्नमे उन्हे चकरा दे, खाली घळेकी तरह जिघर चाहे घुसा दे ।”
भगवानने अलौकिक, विशुद्ध, दिव्य श्रोत्रसे न्यग्रोघ ० के साथ सन्घान गृहपतिका यह कथा सलाप सुना ।
तब भगवान् गृघ्रकूट पर्वतसे उतर जहाँ सुमागघा (पुष्करिणी) के तीरपर मोरनिवाय था, वहाँ गये । जाकर खुले स्थानमे टहलने लगे ।
न्यग्रोघ परिब्राजकने ० मोरनिवापसे भगवानको टहलते देखा । देखकर अपनी मण्डलीको सावघान किया—“आप लोग चुप रहे ० । यह श्रमण गौतम ० खुले स्थानमे टहल रहे है । वे नि शब्दताको पसद करते है ० । यदि श्रमण गौतम इस सभामे आवे तो उन्हे यह प्रश्न पूछूँ—भन्ते । भगवानका वह कौन घर्म है, जिससे भगवान् अपने श्रावकोको विनीत करते है, जिसमे विनीत होकर भगवानके श्रावक ब्रह्मचर्य पालनमे आश्वासन पाते है ॽ” ऐसा कहनेपर वे परिब्राजकने चुप हो गये ।
तब भगवान् जहॉ न्यग्रोघ परिब्राजक था, वहॉ गये । तब न्यग्रोघ परिब्राजकने भगवानसे कहा—पघारे, “भगवान्, भगवानका स्वागत है, भगवानने बहुत दिनोके बाद यहाँ आनेकी कृपाकी, भगवान् बैठे, यह आसन बिछा है ।”
भगवान् बिछे हुये आसनपर बैठ गये । न्यग्रोघ परिब्राजक भी एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे न्यग्रोघ परिब्राजकसे भगवानने यह कहा—“न्यग्रोघ । अभी क्या बात चल रही थी, किस बातमे आकर रुके ॽ”
ऐसा कहनेपर न्यग्रोघ परिब्राजक बोला—
“भन्ते । हम लोगोने भगवानको सुमागधाके तीरपर मोरनिवापमे खुले स्थानमे टहलते देखा । देखकर यह कहा—यदि श्रमण गौतम इस सभामे आवे ० ब्रह्मचर्य व्रत पालन करनेमे आश्वासन पाते है ॽ भन्ते । इसी बातमे आकर हम लोग रुके कि भगवान् पघारे ।”
२-अशुद्ध तपस्या
“न्यग्रोघ । दूसरे मतवाले, दूसरे सिद्धान्तवाले तुम्हे यह समझाना बळा दुष्कर है कि मै कैसे अपने श्रावकोको विनीत करता हूँ, जिससे विनीत होकर मेरे श्रावक आदि ब्रह्मचर्य पालन करनेमे आश्वासन पाते है । तो न्यग्रोघ । तपोकी निन्दा करनेवाले अपने मत (=आचार्यक)के बारेमे ही पूछो—भन्ते। कया होनेसे तप-जुगुप्सा पूरी होती है, कया होनेसे नही पूरी होती ॽ”
ऐसा कहनेपर वे परिब्राजक हल्ला करने लगे—“अरे, बळा आश्चर्य है, बळा अद्भुत है । श्रमण गौतमकी शकित और महानुभावताको (तो देखो) कि अपने पक्षका स्थापन करता है और दूसरोके पक्ष का निराकरण ।”
तब न्यग्रोघ परिब्राजक उन परिब्राजकोको चुपकर भगवानसे यह बोला—“भन्ते । हम लोग
तो तप-जुगुप्साके माननेनाले, तपो-जुगुप्सा (=तपोकी निन्दा) मे रत, तप-जुगुप्सामे लग्न हो विहरते है । भन्ते । क्या होनेसे तप-जुगुप्सा पुरी होती है, (और)क्या होनेसे पूरी नही होती ?”
“न्यग्रोघ । कोई तपस्वी नग्न रहता है, आचार विचारको छोळ देता है, हाथ चाट चाटकर खाता है ०१ । इस तरह वह आघे आघे महीनेपर भोजन करता हे, वह साग मात्र खाता है, ०१ । ० सुबह, दोपहर और शाम तीन बार जल-शयन करता है ।
“न्यग्रोध । तो क्या समझते हो—यदि कोई ऐसा करे तो इस तपश्चर्य्यासे उसके पापोका पूरा निराकरण होता है या नही ?”
“हाँ, भन्ते । ऐसा करनेसे इस तपश्चर्य्यासे उसके पापोका पूर्ण निराकरण होता है, अपूर्ण नही ।”
“न्यग्रोघ । इस तरह पूर्ण होनेपर भी मै कहता हूँ कि इसमे अनेक प्रकारके क्लेश (=मैल) रह जाते है ।”
“भन्ते । इस तरह पूर्ण होनेपर भी भगवान् कैसे कहते है कि इसमे अनेक प्रकारके क्लेश रह जाते है ?”
“न्यग्रोघ । तपस्वी तप करता है, वह उस तपसे सतुष्ट और परिपूर्ण सकल्प होता है । न्य-ग्रोध । यह भी तपस्वीका उपक्लेश है ।—और फिर न्यग्रोघ । (जब) तपस्वी तप करता है । वह उस तप करनेके कारण अपनेको बहुत बळा समझता है और दूसरोको छोटा । न्यग्रोघ । ० यह भी तपस्वीका उपक्लेश (=मल) है । —० वह उस तप करनेसे बळा घमण्ड करता है, बेसुघ हो जाता है और प्रमाद करता है । ० यह भी तपस्वीका उपक्लेश है ।—० वह उस तपके करनेसे लोगोसे बहुत सत्कार और प्रशसा पाता है । वह उस सत्कार और प्रशसासे सतुष्ट और परिपूर्ण सकल्प हो जाता है । ० यह भी तपस्वीका उपक्लेश है ।—० वह उस सत्कार और प्रशसासे अपनेको बहुत बळा समझने लगता है, और दूसरोको छोटा ० यह भी तपस्वीका उपक्लेश है ।—० वह उस सत्कार और प्रशसासे घमण्ड करने लगता है, बेसुध हो जाता है और प्रमाद करता है ।—० यह भी तपस्वीका उपक्लेश है ।
“और फिर न्यग्रोघ । तपस्वी तप करता है । उसे भोजनमे द्वैवी भाव हो जाता है—यह भोजन मुझे खाना बनता है ओर यह नही । जो भोजन खाना उसे नही बनता, उसको इच्छा रहने पर भी छोळ देता है, और जो भोजन खाना बनता है उसे अत्यन्त लालचसे बिना उसके गुण-दोषको विचारे खूब ठूस ठूस कर खा लेता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोघ । तपस्वी लाभ, सत्कार और प्रशसाकी प्राप्तिके हेतु तप करता है—राजा, मन्त्री क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहपति और दूसरे साधु लोग मेरा सत्कार करेगे । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोघ । तपस्वी दूसरे श्रमण और ब्राह्मणोको बतलाता है—कयो यह सब तरहकी जीविकावाला मूलबीज,१ स्कन्घबीज (जैसे ईख), फलबीज, अग्रबीज और पाँचवे बीज-बीज असनिविचक्क दन्तकूट श्रमणोके प्रवादसे सब कुछ खा जाते है, । ० यह भी उपक्लेश ।
“न्यग्रोघ । दूसरे श्रमण या ब्राह्मणो को गृहस्थ-कुलोमे सत्कृत=गरुकृत, सम्मानित, पूजित देखकर तपस्वी के मनमे यह होता हे—इन्हीका गृहस्थ कुलोमे लोग सत्कार करते है, गुरुकार करते है, सम्मान करते है, पूजा करते है । मुझ रूखे रहनेवाले तपस्वीको गृहस्थ कुलोमे लोग न सत्कार करते है ० न पूजा करते है । अत वह गृहस्थ कुलोके प्रति ईर्ष्या और मात्सर्य उत्पन्न करता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोघ । तपस्वी, लोगोके आने जानेके स्थानमे आसन लगाता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोध । तपस्वी अपने गुणोका वर्णन आप करते कुलोमे जाता है―‘यह मेरा तप है, यह भी मेरा तप है ।’ ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोध । तपस्वी चुपचाप छिपाकर कुछ काम करता है । ‘आपको ऐसा करना बनता है ?’ पूछे जानेपर जो बनता है उसे ‘नही बनता है’, और जो नही बनता हे उसे ‘बनता है’ कह देता है । यह जान बूझकर झूठ बोलना होता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोध । तपस्वी तथागत या तथागतके श्रावकोके घर्मोपदेशको अनुमोदन करनेके योग्य होनेपर भी नही अनुमोदन करता । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोध । तपस्वी क्रोघी ० और बद्धवैरी होता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोध । तपस्वी कृतघ्न, डाह करनेवाला, ईर्ष्यालु, कृषण, शठ, मायावी, फुर, अभिमानी, दुष्ट इच्छावाला, पाप इच्छाओके वसमे पळा, बुरी घारणाओमे विश्वास करनेवाला, उच्छेद-दृष्टिवाला, अपने मतपर अभिमान करनेवाला, अपने मतपर हठ करनेवाला, जिद्दी होता है । ० यह भी उपक्लेश ० ।
“न्यग्रोध । तो क्या समझते हो―तप करना क्लेश-सहित है या क्लेशके बिना ?”
“भन्ते । तप करना क्लेश-सहित होता है, क्लेशके बिना नही । भन्ते । यही कारण है कि तपस्वी इन सभी उपक्लेशोके सहित होता है, इनमेसे किन्ही किन्हीकी तो बात ही क्या ?”
३―शुद्ध तपस्या
“न्यग्रोघ । तपस्वी तप करता है । वह उस तपसे न तो सतुष्ट होता है और न परिपूर्ण-सकस्य । ० इस तरह वह वहॉ परिशुद्ध रहता है ।―० वह उस तपसे न तो अपनको बहुत बळा समझता है और न दूसरोको छोटा । ० इस तरह वह वहॉ परिशुद्ध रहता है ।―० वह न घमण्ड करता है, न बेसुध होता है, न प्रमाद करता है । ० परिशुद्ध रहता है ।—० लाभ, सत्कार और प्रशसासे न सतुष्ट होता और न परिपूर्ण-सकल्प । ० परिशुद्ध ० ।―० लाभ ०से न अपनेको बळा समझता है और न दूसरोको छोटा । ० परिशुद्ध ०।―लाभ ० से न घमड करता है, न बेसुघ होता है, न प्रमाद करता है । ० परिशुद्ध ० । ―०भोजनमे द्वैधीभाव नही लाता ० न ठूस ठूसकर खाता है । ० परिशुद्ध ०।―० लाभ, सत्कार और प्रशसाके लिये तप नही करता है ०।० परिशुद्ध ०।―० दुसरे श्रमण, ब्राह्मणोको नही बताता है ०।० परिशुद्ध ० ।―० दूसरे श्रमण या ब्राह्मणोको गृहस्थ कुलोमे सत्कृत ० देखकर उसके मनमे ऐसा नही होता ० न गृहस्थ कुलोके प्रति ईर्ष्या और मात्सर्य उत्पन्न करता है । ० परिशुद्ध ० ।—न मनुष्योके आने जानेके स्थानपर बैठता है । ० परिशुद्ध ० ।—० न अपने गुणोका वर्णन आप करते गृहस्थ कुलोमे जाता है ० । ० परिशुद्ध ० ।—न अकेलेमे चुपचाप कोई काम करता है ० । ० परिशुद्ध ० ।―० तथागत या तथागतके श्रावकोके घर्मोपदेशको अनुमोदन करने योग्य होनेपर अनुमोदन करता है । ० परिशुद्ध ० । ―० क्रोध और वेरसे रहित रहता है । ० परिशुद्ध ० ।―० कृतध्न नही होता, डाह नही करता, ईर्ष्या नही करता, मात्सर्य नही करता ० । ० परिशुद्ध ० ।
“न्यग्रोघ । तो क्या समझते हो―यदि ऐसा हो तो तप शुद्ध होता है या अशुद्ध ?”
“भन्ते । ऐसा होनेपर तप शुद्ध होता है अशुद्ध नही ।”
४-वास्तविक तपस्या ―चार भावनायें
“न्यग्रोध । इतनेसे ही तप प्रशसनीय, सार्थक नही होता । यह तो वृक्षके ऊपरकी पपळी मात्र है।”
“भन्ते । क्या होनेसे तप प्रशसनीय और सार्थक होता है ? साघु भन्ते । भगवान् मुझे प्रशसनीय और सार्थक तप क्या है, उसे बतलावे ।”
“भन्ते । क्या होनेसे तपश्चरण श्रेष्ठ और सार्थक होता है ॽ साधु भन्ते । भगवान् मुझे श्रेष्ठ और सार्थक तपश्चरण बतलावे ।”
“न्यग्रोध । तपस्वी चातुर्याम सवरो से सवृत होता है ० उत्साहित होता है । वह एकान्त-वास करता है ० उपक्लेशोको प्रज्ञासे दुर्बल करनेके लिये मैत्री-युक्त चित्तसे ० उपेक्षा-युक्त चित्तसे ० । वह् अनेक प्रकारसे अपने पूर्वजन्मोको स्मरण करता है, जैसे कि एक जन्म० अनेक लाख जन्म० । वह अलौकिक विशुद्ध दिव्य चक्षुसे प्राणियो (=सत्वो)को च्युत होते और उत्पन्न होते देखता है—नीच सत्वोको उत्तम सत्वोको, सुन्दर सत्वोको, कुरुप सत्वोको, अच्छी-गति-प्राप्त सत्वोको, बुरी-गति-प्राप्त सत्वोको, तथा अपने कर्मोके अनुसार ही गति-प्राप्त सत्वोको ठीक ठीक जान लेता है ।—ये सत्व कायिक दुराचारसे, वाचिक दुराचारसे, मानसिक दुराचारसे युक्त हो, आर्य धर्मके निन्दक रह, बुरी धारणाओमे विश्वास कर, बुरी धारणाके अनुसार काम करके, मरकर नरकमे उत्पन्न हो अति-दुर्गतिको प्राप्त है । और ये दूसरे सत्व कायिक सदाचारसे ० युक्त हो आर्य धर्मको स्वीकार कर, ० सुगतिको प्राप्त है ।
“न्यग्रोध । तो क्या समझने हो—० परिशुद्ध होता है या अपरिशुद्ध ॽ”
“भन्ते । ० परिशुद्ध होता है, अपरिशुद्ध नही । श्रेष्ठ और सार्थक होता है ।”
“न्यग्रोध । इतनेहीसे तपश्चरण श्रेष्ठ और सार्थक होता है । न्यग्रोध । तुमने जो मुझ पूछा था— ‘भन्ते । भगवानका वह कौनसा धर्म है जिससे भगवान् अपने श्रावकोको विनीत करते है, ओर जिससे विनीत होकर श्रावक आदि-ब्रह्मचर्य पालन करनेमे आश्वासन पाते है ॽ’ सो न्यग्रोध । यही कारण है, इससे भी बढ चढकर ओर इससे भी प्रणीत (कारण) है जिससे मै अपने श्रावकोको विनीत करता हूँ, जिससे विनीत होकर श्रावक आदि-ब्रह्मचर्य पालन करनेमे आश्वासन पाते है ।”
ऐसा कहनेपर वे परिबाजक बहुत शोर करने लगे—“हाय । गुरु-सहित हम लोग नष्ट हो गये, विनष्ट हो गये । हम लोग इससे कुछ अधिक नही जानते ।”
५—न्यग्रोधका पश्चात्ताप
जब सन्धान गृहपतिने समझा कि अब ये दूसरे मत-वाले परिबाजक भगवानके कहे हुएको सुनेगे, कान देगे, जानकर (उसमे) चित्त लगावेगे, तब उसने न्यग्रोध परिब्राजकसे कहा—“भन्ते न्यग्रोध । आपने जो मुझे कहा था—‘सुनो गृहपति । जानते हो श्रमण गोतम किसके साथ सलाप करते है ० वे लोगोसे मुँह चुराकर अलग ही अलग रहते है । ० यदि श्रमण गौतम इस सभामे आवे तो ० उनहे खाली घळेकी तरह जिधर चाहे हेर फेर दे ।’ भन्ते । वे भगवान् अर्हत्, सम्यक्-सम्बुद्ध यहॉ पधारे है, उन्हे सभासे मुँहचोर बनाइये न, कानी गायकी तरह अलग ही अलग चलनेवाला बनाइये न ॽ क्यो नही एक ही प्रश्नसे उन्हे चकरा देते, जैसे कि खाली घळेको हेर फेर देते है ॽ”
ऐसा कहनेपर न्यग्रोध परिब्राजक चुप हो, गूँगा बन, कन्धा गिरा, नीचे मुँहकर, चिन्तित और उदास होकर बैठा रहा ।
तब भगवानने न्यग्रोध परिब्राजकको चुप, गूँगा बन ० उदास होकर बैठा देख, यह कहा—“न्यग्रोध । क्या सचमुच तुमने ऐसी बात कही ॽ”
“भन्ते । सचमुच मैने बालक मूढ जैसे अजान बात कही ।
“न्यग्रोध । तो तुम क्या समझते हो ॽ क्या तुमने वृद्ध बळे आचार्य और प्राचार्य परिब्राजकोको कहते सुना है कि अतीत कालमे (जो) अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध हो गये है, वे अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध क्या तुम्हारे जैसा हल्ला मचानेवाला और अनेक प्रकारकी निरर्थक कथाये कहनेवाले थे ० ॽ या वे भगवान् जंगलोमे एकान्तवास ० करनेवाले थे, जैसा कि इस समय मै ॽ”
“भन्ते । ऐसा मैने ० आचार्य प्राचार्य परिब्राजकोको कहते सुना है ० । वे मेरे जैसा हल्ला मचाने ० वाले नही थे, किन्तु जंगलोमे एकान्तवास ० करनेवाले थे जैसा कि इस समय भगवान् ।”
“न्यग्रोध । तब क्या तुम्हारे जैसे सुविज्ञ पुरुषको यह भी समझमे नही आता—बुद्ध हो भगवान् बोधके लिये धर्मोपदेश करते है, दान्त हो भगवान् दमनके लिये धर्मोपदेश करते है, शान्त हो,
भगवान् शमनके लिये धर्मोपदेश करते है, तीर्ण (=भवसागर पार) हो, भगवान् तरुणके लिये धर्मोपदेश करते है, परिनिवृत हो, भगवान् परिनिर्वाणके लिये धर्मोपदेश करते है ।”
ऐसा कहनेपर न्यग्रोध परिब्राजकने भगवानसे यह कहा—“भन्ते । बाल-मूढ अजानके जैसा मुझसे बळा भारी अपराघ हो गया, कि मैने आपके विषयमे ऐसा कह दिया । भन्ते । भविष्यमे संयमके लिये मेरे अपराधको क्षमा करे ।”
“न्यग्रोध । सुनो बाल ० के जैसा तुमने बळा भारी अपराध किया, जो कि तुमने मेरे विषयमे वैसा कहा, किन्तु न्यग्रोध । जब तुम अपने अपराधको स्वंय स्वीकारकर धर्मानुकूल प्रतीकार करते हो, तो मै उसे क्षमा करता हूँ । न्यग्रोध । आर्य विनयमे यह बुद्धिमानी ही समझी जाती हे, कि पुरुष भविष्यमे संयमके लिये अपने अपराधको स्वंय स्वीकारकर धर्मानुकूल प्रतीकार करे ।
६-बुद्ध-धर्मसे लाभ इसी शरीर में
“न्यग्रोध । मै तो ऐसा कहता हूँ—कोई सज्जन, निश्छल, और सरल स्वभाववाला बुद्धिमान् पुरुष आवे । मै उसे अनुशासन करता हूँ, धर्मोपदेश देता हूँ, मेरी शिक्षाके अनुसार आचरण करे, तो जिसके लिये कुलपुत्र ० प्रब्रजित होते है उस अनुपम ब्रह्मचर्यके अन्तिम लक्ष्यको सात वर्षमे ही स्वंय जानकर साक्षात्कार कर प्राप्तकर विहरेगा । न्यग्रोध । सात वर्ष तो जाने दो, छै वर्ष मे ही, ० पॉच ० चार ० तीन ० दो ० एक वर्षमे ० एक सप्ताहमे ० ।
“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मनमे ऐसा हो—अपने चेलोकी सस्या बढानेके लिये श्रमण गौतम ऐसा कहते है, तो न्यग्रोघ । ऐसा नही समझना चाहिए । जो तुम्हारा आचार्य है वही तुम्हारे आचार्य रहे ।
“न्यग्रोघ । यदि तुम्हारे मनमे ऐसा हो—हमे अपने उदेश्यसे च्युत करनेके लिये श्रमण गौतम ऐसा कहते है, तो न्यग्रोध ऐसा नही समझना चाहिये । जो तुम्हारा अभी उदेश्य है वही उदेश्य रहे ।
“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मनमे ऐसा हो—हम लोगोको अपनी जीविका छुळा देनेके लिये श्रमण गौतम ऐसा-कहते है, तो ० । जो तुम्हारी अभी जीविका है वही जीविका रहे ।
“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मनमे ऐसा हो—हमारे मताचार्यो की जो बुराइयाँ (=अकुशल धर्म) है, उनमे प्रतिष्ठित करनेकी इच्छासे श्रमण गौतम ऐसा कहते है, तो न्यग्रोध । ऐसा नही समझना चाहिए । आचार्योके साथ तुम्हारे वे अकुशल धर्म अकुशल ही रहे ।
“न्यग्रोध । यदि तुम्हारे मनमे ऐसा हो— ० कुशल धर्म ० ।
“न्यग्रोध । अत, न तो मै अपने चेलोकी संख्या बढानेके लिये, न उदेश्यसे च्युत करनेके लिये ० ऐसा कहता हूँ ।
“न्यग्रोध । जो अ-नष्ट (=अप्रहीण) बुराइयाँ (=अकुशल धर्म) कलेशोको उत्पन्न करनेवाली, आवागमनके कारणभूत, सभी प्रकारकी पीडाओको देनेवाली, दुख-परिणामवाली, जाति, जरा, और मरणके कारण है, उन्हीके प्रहाण (नाश)के लिये मै धर्मोपदेश करता हूँ जिसमे कि तुम्हारे क्लेश देनेवाले धर्म नष्ट हो जावे और शुद्ध धर्म बढे, और तुम प्रज्ञाकी पूर्णता और विपुलताको प्राप्त होकर, उसे इसी संसारमे जानकर साक्षातकार कर प्राप्त कर विहार करो ।”
ऐसा कहनेपर वे परिब्राजक चुप हो, गुँगे बन, ० बैठे रहे, जैसे कि उनके चित्त को मारने जकळ लिया हो ।
तब भगवानके मनमे यह हुआ—‘ये सभी मूर्ख पुरुष मारके बन्धनमे बँधे है, जिससे इनमे एकके मनमे भी यह नही होता, कि ‘मै ज्ञान-प्राप्तिके लिये भगवानके शासनमे रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करुँ । सप्ताह कया करेगा ॽ’
तब भगवान् उदुम्बरिका परिब्राजक-आराममे सिंहनादकर, आकाशमें ऊपर उठ, गृघ्रकूट पर्वतपर जा बिराजे ।
सन्घान गृहपति भी राजगृह चला गया ।